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उपजी आवै । तब श्रद्धानतें विगिजाय । तातें यह कथन प्रगट होय तौ श्रद्धानतें चि नाहीं । एक प्रयोजन तौ यह है ।
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बहुरि दूजा यह है - जो इस ग्रन्थकी वचनिका पहले भी भयी है, ताके अनुसारि वाणारसीदासनें कलसाके कवित्त बांधे हैं, ते स्वमतपरमतमें प्रसिद्ध भये हैं । परंतु तिनिमें अर्थ सामान्यही 5 लोक समझे हैं। तार्मे विशेष समझा विना कोईकै पक्षपात भी उपजि आवे है । तथा तिनि कवित्तनिकूं अन्यमती पढि अपना मतका अर्थ में भेले हैं, सो विशेष अर्थ समझाविना यथार्थ होय नाहीं, 卐 5 भ्रम मिटे नाहीं । तातें इस कवनिका में जहां तहां नयविभागका अर्थ स्पष्ट खोलियेगा, तातें भ्रम न रहेगा ।
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卐 बहुरि तीसरा प्रयोजन यह है- जो कालदोषतें बुद्धिकी मंदता प्राकृतसंस्कृतके पढनेवाले तौ 5 विरले होय हैं । तिनिमें भी स्वमतपरमतका विभाग समझी यथार्थ तस्वार्थ समझनेवाले विरले होय हैं । बहुरि गुरुआम्नाय जैनग्रन्थनिकी कमि रहि गई, स्याद्वादके मर्मकी बात कहने वाले फ फ गुरुनिकी व्युच्छित्ति ही दीखे है तातें शुद्धनयका मर्म स्याद्वादविद्याकूं समझिकरि समझें, तब यथार्थ होय । सो इस ग्रन्थकी वचनिका विशेष अर्थरूप होय ते सर्वही बाचें पढें तो पहिली वचनिकाके फ
5 सामान्य अर्थ में किछू भ्रम उपजे तो मिटिजाय, इस शास्त्रका यथार्थज्ञान होय, तौ अर्थमें विपर्यय न होयगा । ऐसें तीन प्रयोजन मनमें धारि वचनिकाका प्रारंभ कीया है ।
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बहुरि एक प्रयोजन यह भी है-जौ जैनमत में मोक्षमार्गका वर्णन में मुख्य पहलै सम्यग्दर्शन प्रधान 5 कया है, सो व्यवहारनयकरि तो सम्यग्दर्शन भेदरूप अन्यग्रन्यनिमें अनेक प्रकार कया है, सो प्रसिद्ध है । बहुरि इस ग्रन्थ में शुद्धनयका विषय जो शुद्ध आत्मा ताहीका श्रद्धानकूं सम्यग्दर्शन एकही प्रकार फ 5 नियमकरि का है। सो लोकमैं यह कथनी प्रसिद्ध बाहुल्यताकरि नाहीं है । तार्ते व्यवहारहीकू लोक जाने हैं। जैसें पहले अशुभका व्यवहार लोककै है ताकू निषेधकरि व्यवहारनव शुभ प्रवर्तावें है, 卐 फ सो लोक अशुभकी पक्ष छोडि शुभमें प्रवर्ते । अर कदाचित् शुभहीका पक्ष पकडी याहीका एकांत फ्र
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