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________________ 卐 व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिमैं ग्लानि न करें, सो निर्विचिकित्सा है ||३|| बहुरि देव शास्त्र गुरु मय ८७३ 5 लोककी प्रवृत्ति अन्यमतादिक तत्त्वार्थका स्वरूपविषै मूढता न राखै, यथार्थ जानि प्रवतें सो अमूढ- 5 दृष्टि है || ४ || बहुरि धर्मात्मामें कर्म के उदयतें दोष उपजै, ताकूं गौण करे अर व्यवहार मोक्षमार्गकी 5 प्रवृत्ति बधावे सो उपगूहन तथा उपबृंहण है ||५|| बहुरि व्यवहारमोक्षमार्ग विगतेकूं घिरता करे सो स्थितिकरण है || ६ || बहुरि व्यवहार मोक्षमार्ग में प्रवर्तनेवालेतें विशेष अनुराग होय, सो 卐 वात्सल्य है ||७|| बहुरि व्यवहारमोक्षमार्गका अनेक उपाय करि उद्योत करें, सो प्रभावना है ॥८॥ 卐 卐 सो ए व्यवहारनय प्रधान करि कहे हैं। सो इहाँ निश्चयंप्रधान कथनविर्षे इनिकी गौणता है। सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टी मैं दोऊ ही प्रधान हैं, स्याद्वादमत में किछू विरोध नाहीं है । अब निर्जरा 5 अधिकारकूं पूर्ण किया, सो निर्जराका स्वरूप यथार्थ जाननेवाला अर कर्मका नवीन बन्ध रोकि फ निर्जरा करनेवाला जो सम्बन्दृष्टि, ताकी महिमा करे हैं । मन्दाक्रान्ताछन्दः । 卐 रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽटाभिरंगैः शाम्बद्धं तु क्षयमुपनयन्निर्जरोज्जृम्भणेन । 卐 सम्बदृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्त ं ज्ञानं भूत्वा मटति गगनाभोगरङ्ग विगाहा ॥ ३० ॥ इति निर्जरा निष्क्रांता । फफफफफफफफफफ 卐 卐 फ्रफ़ फफफफफफफफफ 卐 इति समयसारख्याख्यायामात्मख्याती पछोकः । अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव है सो आप स्वयमेव अपने निजरसमें मस्त भया संता आदि मध्य 5 संता है । बंध तौ होय नाहीं अर माठ अंगमि अन्तकार रहित सर्वव्यापक एकप्रवाहरूप धारावाहीज्ञानरूप होय करि अर आकाशका मध्यरूप * जो रङ्गभूमि अतिनिर्मल ताविवें अवगाहन करि नृत्य करे है। कैसा है सम्यग्दृष्टि ? नवीन बंधकूं क तौ पूर्वोक्त प्रकार रोकता संता है, बहुरि पहिली बांध्या था ताकू अपने अष्ट अङ्गनिकारि सहित 卐 卐 या संता निर्जराके प्रगट होनेकरि नाशङ्कं प्राप्त करता भावार्थ - सम्यग्दृष्टीकै शंकादिक कर किया नवीन
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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