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प्राभू
ग्रहण किया जो व्यवहार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ताका पाक कहिये परिपाक पचना ताका प्रकर्ष क कहिये बनेकी परंपरा ताकरि अनुक्रमकरि अपना स्वरूपविषै आपकूं आरोपण करताकै अर अन्तम जो निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका विशेष तिसपणाकरि साधकरूप है । बहुरि तैसें ही फ्र परमप्रकर्ष कहिये बधना ताकी मकरिका कहिये हद ताकूं अधिरूढ कहिये प्राप्त भया जो रत्नत्रय arat अतिशयकार प्रवर्त्या जो समस्त कर्मका नाश ताकरि प्रज्वलित दैदीप्यमान अर अस्खलित 15 कहिये फेरि चि नाहीं ऐसा निर्मल स्वभावभाव तिसपणाकरि सिद्धरूप है । इनि साधक सिद्ध दोऊ भावनिक स्वयमेव आप परिणमता जो एक ज्ञानमात्र भाव सो ही उपायउपेयभात्रकं
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साधे
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है ।
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भावार्थ - यह आत्मा अनादिकालतें मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र संसारमै भ्रमे है । सो जब व्यव हार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकं निश्चल अंगीकार करें, तब अनुक्रमतें अपना स्वरूपका अनुभवनकी वृद्धि करता निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णता प्राप्त होय ते तो साधकरूप है । वहुरि निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णताकरि समस्त कर्मका नाश होय तब साक्षात् मोक्ष होय । फ्र सो सिद्धरूप भाव है । सो इनि दोऊ भावरूप ज्ञानहीका परिणाम है। सो ही उपायोपेयभाव
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है । ऐसें दोऊ ही भावनिविषै ज्ञानमात्रकै अनन्यपणा है । अन्यपणा नाहीं है । तिलकरि नित्य
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निरंतर नाहीं चिगता जो एकवस्तु ताका निष्कम्प परिग्रहणत तिस ही काल मोक्षके अर्थी पुरुष फ
निकै जो भूमिका अनादिसंसारत लगाय कबहू जिनिने पाई नाहीं ऐसी भूमिका का लाभ तिनिकूं
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या प्रकार होय है । तातें ते सत्पुरुष तहां सदाकाल निश्चल भये ते आपही क्रमरूप अर फ 14 अक्रमरूप प्रवर्ते जे अनेकांत कहिये अनेक धर्म तिनिकी मूर्ति भये संते साधकभावतें है संभव
कहिये उत्पत्ति जाकी ऐसी परमप्रकर्षकी हृदरूप जो सिद्धि ताके भावके भाजन होय हैं । बहुरि फ जे इस भूमीकूं नाहीं पाये हैं "कैसी है भूमि ? अंतनत कहिये जामैं गर्भित भये अनेक धर्म ऐसा
जो ज्ञानमात्र एक भाव तिसस्वरूप है" सो ऐसी भूमिकूं जे नाही पावै ते नित्य अज्ञानी होते
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