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________________ फफफफफ प्रस्तावना कस्तूरी कुण्डल बसे-मृग ढूंढे वन माहि श्री समय सार जी में द्रव्य-दृष्टि का प्रधानता से वर्णन किया गया है क्योंकि पर्याय दृष्टि का एकांत तो जीव के फ्र अनादि कालीन है। यह तो अग्रहीत मिथ्यात्व है। उसको मेटने के लिए द्रव्य दृष्टि की मुख्यता से उपदेश दिया गया है। पर्याय -दृष्टि रूप तो वह अपने को मान ही रहा है। द्रव्य-दृष्टि का ज्ञान नहीं । अगर द्रव्य दृष्टि का ज्ञान हो 5 जाता है तब पर्याय-दृष्टि का एकांत मिट कर द्रव्य-पर्यायात्मक जैसी वस्तु है उसका वैसा श्रद्धान हो जाता है। जहां आत्मा द्रव्य-दृष्टि से ज्ञान दर्शन रूप है वहां पर्याय-दृष्टि से रागादि रूप परिणमन भी कर रहा है। यह दोनों कार्य फ एक साथ एक समय में हो रहे हैं। यह आप अपने को देखने जानने वाला है। इसी को आचार्य सम्बोधन करते हैं। कि "तू अपने को पर्याय रूप अनुभव करेगा तो पर्याय तो अशुद्ध है, विकारी है और नाशवान है। उस रूप अनुभव करने से विकार बढ़ेगा। इसलिए तू अपने को द्रष्य दृष्टि के विषय रूप अनुभव कर ले। जैसा तू अनादि अनंत एक रूप पर से रहित ज्ञान दर्शन रूप है।" ऐसा अनुभव करने से शरीर से, रागादि से भेद होकर उसमें अपनापना मिट जाएगा और क्रम से इनका अभाव होकर जो पर्याय में अशुद्धता है वह मिट जायगी। द्रव्य दृष्टि में तो अशुद्धता 5 ५ 5 卐 हर एक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य + विशेष = वस्तु अथवा द्रव्यार्थिक + पर्यायार्थिक = वस्तु | 卐 यह वस्तु का पूरा स्वरूप है । सामान्य के बिना विशेष नहीं है और विशेष के बिना सामान्य नहीं। ऐसा होते हुए भी 5 फ 5 5 सामान्य विशेष नहीं और विशेष सामान्य नहीं है। वस्तु का सही ज्ञान तभी होता है जब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के विषय को अच्छी तरह समझा जाए। अगर द्रव्यार्थिक के ज्ञान के बिना मात्र पर्यायार्थिक का ज्ञान भी करें परन्तु द्रव्यार्थिक सापेक्ष न मानने से पर्याय रूप मानना भी मिथ्या है। इसी प्रकार द्रव्यार्थिक रूप अपने को जाने भी परन्तु पर्यायार्थिक सापेक्ष ज्ञान नहीं है तो वह भी सही नहीं है। एक रूपए के दो साइड हैं। एक को ऊपर करेंगे तब दूसरी साक्ष्य पीये जरूर रहेगी। उसका निषेध नहीं हो सकता। यह जरूर है कि द्रव्यार्थिक के कथन में पर्यायार्थिक 5 के विषय को नहीं कहा जा सकता। उसका विषय उस दृष्टि में नहीं है। इसको असत्यार्थ कहने का अर्थ ऐसा नहीं है कि उस दूसरी दृष्टि का विषय नहीं है, परन्तु वहां असत्यार्थ कहने का मतलब इतना ही है कि जिस दृष्टि का 5 वर्णन किया जा रहा है। उस दृष्टि का वह विषय नहीं है। फफफफफफफफफफफ 卐 卐 卐 卐
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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