SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ + 5 5 5 55 55 55 55 5 52 मालिनी छन्दः विजहति न हि सा प्रत्ययाः पूर्वमहाः समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः । सदपि सकलरागदपमोहब्युदासादवतरति न जातु मानिनः कर्मवन्धः ॥६॥ ___अर्थ-चयपि पूर्व अज्ञान अवस्थामैं बंधरूप भये थे, ते द्रव्यरूप प्रत्यय कहिये द्रव्यासूत्र, ते सत्तामैं विद्यमान हैं। जाते तिनिका उदय अपनी स्थितीके अनुसार है, सातें जेते उदयका ॥ + समयमाही आवे तेते सत्ताहीमें रहे, ऐसे द्रव्यासव सत्तामैं रहे, ते अपनी सत्ताक नाहीं छोडे हैं। तौऊ ज्ञानीके समस्त रागद्वेषमोहका अभावतें नवीन कर्मका बंध कदाचित् ही अवतार 卐 नाहीं घरे है। भावार्थ-रागद्वेषमोहभाव विना सत्ताका द्रव्यासूव बंधका कारण नाहीं है। इहां सकल रागद्वषमोहका अभाव बुद्धिपूर्वक अपेक्षा जानना। आगे इस ही अर्थकै दृढ करनेरूप गाथा है। ताकी सूचनिकाका श्लोक है। __अनुष्टुप् छन्दः रागदपविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः । तत एव न बन्धोऽस्प तेहि बन्धस्य कारणम् ॥१॥ अर्थ-जाते ज्ञानीके रागद्वेषमोहका असंभव है, ताहीते ज्ञानीके बंध नाहीं है। जाते राग म द्वेष मोह हैं ते ही बंधके कारण हैं । आगे इस अर्थका समर्थनकी गाथा रागो दोषो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिहिस्स। तहमा आसवभावेण विणा हेदु ण पच्चया होति ॥१४॥ हेदू चदुवियप्पो अववियप्पस्स कारणं होदि। तेसि पिय रागादी तेसिमभावेण वॉति ॥१५॥ + + + + +
SR No.090449
Book TitleSamayprabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherMussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1988
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy