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____ अर्थ-ज्ञानी है सो पुदगलकम के फल अनंत हैं तिनि जानता संता प्रवते है, तोऊ परमा- 卐 र्थत परद्रव्यके पर्याय विष नाहीं परिणमे है । तथा ताविर्षे कछू नाहीं ग्रहे है। तथा ताविय उप-.जे नाहीं है । ऐसें ताविर्षे याके कर्तृकर्मभाव नाहीं हे।
टीका-जातें प्राप्य, विकार्य, निर्वयं ऐसें व्याप्य है लक्षण जाका ऐसा तीनप्रकारका सुख- 5 दुःखादिरूप पुगलकर्मका फल, सो पुद्गलद्रव्य अंतापक होयकरि आदि, मध्य, अंतविर्षे व्याप्यकरि ताकू ग्रहण करता तथा तैसें परिणमता तथा तैसें ही उपजताकरि किया है, ताही + जानता संता जो यह ज्ञानी, सो आप अंतयापक होय करि बाह्य तिष्ठता परद्रव्यका परिणामकू "मृत्तिकाकलशकी ज्यौं” आदि, मध्य, अंत विर्षे व्याप्यकरि नाहीं ग्रहण करे है तथा तैसें परिणमे ॥ नाहीं है तथा तैसे उपजे नाहीं है । तौ कहा है ? प्राप्य विकार्य निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण अपना स्वभावरूप कर्म है, ताहि आप अंतापक होयकार, आदि, मध्य, अंतविष व्याप्य, तिसहीकू ग्रहण कर है, तैसे ही परिग है, ते ही उपजे है । सात प्राय विकार्य निर्वत्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यका परिणामरूप कर्म न करता संता सुखदुःखरूप पुद्गलकर्मका फल जानता संता । है तौऊ ज्ञानीक पुद्गलकरि सहित कतृ कर्मभाव नाहीं है।
भावार्थ-पहली गाथामैं कह्या सो ही जानना। आगें पूछे है, जो जीवके परिणामकू तथा अपने परिणामकू तथा अपने परिणामके फलकू नाहीं जानता ऐसा जो पुद्गलद्रव्य, ताकै जीवकरि 5 सहित कर्तृकर्मभाव है कि नाही है ? ऐसें पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा
णवि परिणमदि ण गिणदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। पुग्गलदव्वं पि तहा परिणमइ सएहिं भावेहिं ॥११॥
नापि परिणमति न गृह्मात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वर्भावैः ॥११॥
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