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5 करना सो आलोचना है। सो निश्चय विधारिये सब तीनू, कालसंधि कमीनंत आत्मा भिन्न समय जानना, श्रद्धना, अनुभवना ऐसे किये आत्मा ही प्रतिक्रमण है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही आलोचना है। तीनों स्वरूप निरंतर आत्माका अनुभवन सो ही चारित्र है । अर निश्चय卐 ४. चारित्र है सो ही ज्ञानचेतनाका अनुभवन है। इस ही अनुभवतें साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप heeran आत्मा प्रगट होय है। अब आगे ज्ञानचेतना अर अज्ञानचेतना जो कर्मचेतना अर फ कर्मफलचेतना ताका स्वरूप प्रकट करें हैं। ताकी सूचनिकाका काव्य कहै हैं ।
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उपजातिछन्दः
ज्ञानस्य सञ्चेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीवशुद्धम् ।
अज्ञानसचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ||३१||
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अर्थ - ज्ञानकी संचेतनाकरि ही ज्ञान है सो अत्यंत शुद्ध निरंतर प्रकाशे है । बहुरि अज्ञानकी चेतनाकरि बंध है सो दोडता संता ज्ञानकी शुद्धताकू रोके है, न होने दे है ।
भावार्थ -- संचेतना कहिये जो जहां जिसतें एकाग्र होय तिस ही ओर अनुभवरूप स्वाद
four at it fat वरूपचेतना कहिये । सो जब ज्ञानहीतें एकाग्र उपयुक्त होय तिस हो और
चेत राखें सो सौ ज्ञानचेतना है। सो यातें तौ ज्ञान अत्यंत शुद्ध होय प्रकाशे हैं, केवलज्ञान उपजि 5
आवे है तब संपूर्ण ज्ञानचेतना नाम पावे है । बहुरि अज्ञान जो कर्म अर कर्मका फलरूप उपयो
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गहूं करना सो तिस ही ओर एकाग्र होय अनुभव करना सो अज्ञानचेतना है । सो यातें कर्मका
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बंध होय है। सो ज्ञानकी शुद्धताकूं रोके है । अब इस कथन गाथाकरि कहे हैं। गाथावेदतो कम्मफलं अप्पाणं जो दु कुणदि कम्मफलं ।
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सो तं पुणोवि बंदि बीर्य दुक्खस्स अठ्ठाविहं ॥ ७९ ॥
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