Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 638
________________ 卐 भावार्थ – अनादिकालके प्राणी स्वयमेव तथा एकांतवादका उपदेशकरि आत्मतत्त्वकू ज्ञानका अनुभवका क्षणातकरि आत्माका नाश करे है । तिनिकू समझावनेकू आत्माका प्रा स्वरूप ज्ञानमात्र ही कहिकरि, अर तिसकूं अनेकांतस्वरूप प्रकटकरि स्याद्वाद दिखाया है, सो 5 यह असत्कल्पना नाहीं है । ज्ञानमात्र वस्तु अनेकधर्मसहित आप आप अनुभवगोचर प्रत्यक्ष प्रति-5 भास आ है । सो प्रवीण पुरुष अपना आपाकी तरफ देखि अनुभवकरि देखो । ज्ञान तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप अनेकस्वरूप, अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावतें सत्स्वरूप, परके द्रव्यक्षेत्रकालभावतें क फ 15 असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभवगोचरकरि अनेकधर्म स्वरुप, प्रतीती मैं ल्यावो । यह ही सम्यग्ज्ञान है । सर्वथा एकांत मार्ने मिथ्याज्ञान है, ऐसा जानता । 5 अब अनेकांतकी महिमा करे हैं । फ्र 卐 अनुष्टुप्छन्दः 卐 एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् | अलङ्घ्यशासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ||१७|| 5 卐 अर्थ - याप्रकार तत्व कहिये वस्तूका यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थितिकरि अपने स्वरुपकूं आप ही स्थापन करता संता अनेकांत है सो व्यवस्थित भया निश्चत ठहरथा । सो कैसा है यह ? अलंघ्य फ 15 कहिये काहूकरि लंघ्या न जाय जीत्या न जाय ऐसा जिनदेवका शासन है, मत है, आज्ञा है । फ्र भावार्थ - यह अनेकांत है सो ही निर्वाध जिनमत है । सो जैसे वस्तूका स्वरूप है तैसें स्थापता फ 5 आप आप सिद्ध भया है । असत्कल्पनाकरि वचनमात्र प्रलाप काढूने नकया है। निपुण पुरुषनिके। विचारि प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणकरि अनुभवकरि देखो। इहां कोई तर्क करे है, जो आत्मा अने-' फ कांतमयी है, अनंतधर्मा है, तौऊ ताका ज्ञानमात्रपणाकरि नाम कौन अर्थी किया ? ज्ञानमात्र कह 55 मैं तौ अन्यधर्मनिका निषेध जान्या जाय है । ताका समाधान - जो इहां लक्षणकी प्रसिद्धिकरि 5 लक्ष्य के प्रसिद्धि अर्थी आत्माका ज्ञानमात्रपणाकरि नाम किया है, जो आत्मा ज्ञानमात्र है। क सोही कहे हैं, आत्माका ज्ञान लक्षण है । जातें तिस आत्माका सो ज्ञान असाधारण गुण है। 卐 卐 5 T

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