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अर्थ-यह समय कहिये आत्मवस्तु तथा समय कहिये समयप्राभृत नाम शास्त्र,
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फ व्याख्या कहिये व्याख्यान तथा यह आत्मख्याति नाम टोका, सो शब्दनिकरि करी है । कैसे हैं शब्द ? अपनी शक्तिहीकरि संसूचित कहिये भलै प्रकार कया है वस्तूका तत्त्व कहिये यथार्थस्वरूप कहिये निज आत्मरूप अमूर्तिक ज्ञानमात्र, तिसविषै गुप्त होय प्रवेशकरि रह्या है । भावार्थ-शद है सो तो पुद्गल है। सो पुरुषके निमित्ततें वर्णपदवाक्यरूप परिणमें है सो वस्तू स्वयमेत्र है । r ranatara 5 संबंध है, सो द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दही करना संभव है । अर आत्मा है सो अमूर्तिक है, अर ज्ञानस्वरूप है, तातें मूर्तिक पुद्गलको रचना कैसे करें ? तातें आचार्यने ऐसा कहा है, सो यह फ समप्रभृतकी टीका शब्दनिकरि करी है । मैं मेरा स्वरूपमें लीन हौं । मेरा कर्तव्य यामैं नाहीं है । ऐसें कहने में उद्धतपणाका परिहार भी आवे है । अर निमित्तनैमित्तिकव्यवहारकर ऐसा 5 कहिये ही है, जो विवक्षितकार्य फलाने पुरुषने किया इस न्यायकरि अमृतचंद्र आचार्यकृत यह टीका है हो। इस ही न्यायकरि पढनेसुननेवालेनि तिनिका उपकार भी मानना युक्त हैं ।
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पढने सुनकर परमार्थ आत्माका स्वरूप जान्या जाय है । तिसका श्रद्धान आचरण क
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ये मिथ्या ज्ञान श्रद्धान आचरण दूरि होय है । परंपरा मोक्षकी प्राप्ति होय है । याका निरंतर
अभ्यास करना योग्य है ।
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ऐसें आत्मख्याति नामा समयसारग्रंथकी टीका समाप्त भई । सवईया इकतीसा
कुंदकुंदन किया गाथाचं प्राकृत है प्राभृतसमय शुद्ध आतम दिखावनूं |
सुधाचंद्रसूरि करि संस्कृतीका वर आत्मख्याति नाम यथातथ्य मन भावनं ॥ cant aafaai लिख जयचंद्र पढें संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धिकू पावनं । ढोसून मन ला शुद्ध आतमा लखाय ज्ञानरूप गहौ चिदानंद दरसावनूं || १॥ समयमार अधिकारका वर्णन कर्ण सुनंत । द्रव्यभावनो कर्म तजि आतमतन्त्र लखत ॥२॥
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