Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 660
________________ 乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐 - ऐसे इस समयसारप्रामृतनामा मंथकी आत्मख्याति नामा संस्कृसटीकाको देशभाषामय जवनिका लिखी है । सो यह ताका संक्षेप भावार्थरूपसा अर्थ लिख्या है। संस्कृतटीका, न्यायसे ..सिद्ध भये प्रयोग हैं । तिनिका विस्तार करिये तब अनुमानप्रमाणके प्रयोग प्रतिज्ञा, हेतु, उदा हरण, उपनय, निगमनरूप हैं, तिनिका स्पष्टकरि व्याख्यान लिखिये तो ग्रंथ बहुत वधै । तथा ॥ आयु बुद्धि बले स्थिरता अल्पतातें जेता बण्या तेता संक्षेपकरि प्रयोजन मात्र लिख्या है। "ताकू वाँचिकरि भव्यजीव पदार्थ समझियो। अर किछू अर्यमें हीनाधिक होय तो बुद्धिमान् 卐मूलग्रंथतें जैसे होय तैसें समझियो । कालदोषते इनि ग्रंथनिको गुरुसम्प्रदायका व्युच्छेद होय गया ._है । तातें जेता बणे तेता अभ्यास होय है। जैनमत स्याद्वादरूप है, सो जे जिनमतको आज्ञा जमाने हैं तिनिके विपरीत श्रद्धान न होय है। कहूं अर्थका अन्यथा समझना भी होय तो विशेष- - बुद्धिमान्का निमित्त मिले यथार्थ होय है। जिनमतके श्रद्धानी हठमाही नाहीं होय हैं ऐसे "जानना ।। अंतमंगलके अर्थ परमेष्ठोकू नमस्कार करि ग्रंथ समाप्त करिये हैं। छप्पय----मंगल श्रीअरहंत घातियाकर्म निवारे | मंगल सिद्ध महंत कर्म आठ परजारे। आचारिज उवज्झाय मुनी मंगलमय सारे । दीक्षा शिक्षा देय भव्यजीवनितारे। अठत्रीस मूलगुण धार जे सर्वसाधु अणगार हैं । मैं नमू पंचगुरुचरणक् मंगल हेतु करार हैं ॥१॥ जैपूरनगरमांहि तेरापन्थशैली बडी बडे बडे गुनी जहां पटै ग्रंथ सार हैं। जयचन्द्र नाम मैं हूँ तिनिमें अभ्यास किछु किवो बुद्धिसारू धर्मरागत विचारे है ।। समयसारग्रंथ ताकी देशके बचनरूप भाषा करि पढो सुनू करो निरधार है। आपापर मेद जानि हेय त्यागि उपादेय महो शुद्ध आतमहू यह बात सार है ॥२॥ दोहा-संवत्सर विक्रम तणू अष्टादश शत और । चौसठि कातिक वदि दशै पूरण ग्रंथ सु और ॥३॥ ' इति श्रीमत्कुन्दन्कुदाचार्यकृत समपत्राभृत नामा प्राकृत गाथाबद्धग्रन्थकी अमृतचन्द्राचार्यकृत आत्मख्याति नामा ॥ ___संस्कृतटीकाके अनुसार यह संक्षेपभावार्थमात्र देशभाषामयवनिका संपूर्ण मई । +++++++++ ।”

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