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यह जानि ज्ञानी जीव आपकू भज सदीव शानरूप सुखनूप आन न लगावको ।
कर्म कर्मफलरूप चेतना दूरि दारि बानचेतना अभ्यास करे शुद्ध धावको ॥१॥ अब संस्कृतटीका पूर्ण करि अमृतचंद्र आचार्य कहे हैं, जो आत्मामैं परसंयोगर्ते अनेक भाव) होय हैं तिनिका वर्णन ग्रंथनिमें होय है, सो सर्व ही वर्णन इस विज्ञानधन, मन्न भये किछू भी... "नाहीं दीखे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः ___ यस्मात् द्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोभू दं यही जन्तरं । रागढ़ पपरिग्रहे सति यती जातं क्रियाकारकः । + भाना च यतोऽनुभूतिराखलं खिन्नक्रियायाः फलं । तद्विज्ञानघनौघमामधुना किदिन वित्किल ॥३॥
अर्थ-यस्मात् कहिये जिसपर संयोगरूप बंधपर्याय जनित अज्ञानतें प्रथम तो अपना अर। ऊपरका द्वैतरूप एकभाव भया. बहुरि जिस द्वैतपणातें अपने स्वरूपविर्षे अंतर भया, बंधपर्यायहीकू
आपा जान्या, वहरि तिस अंतर पडते रागदेषका परिग्रहण भया, तिसके होते क्रिया अर कर्ता कर्म आदि कारकनिकरि भेद पड्या, बहुरि तिस क्रिया कारकके भेदकार आत्माकी अनुभूति है, 卐 - सो क्रियाका समस्तफलकू भोगती संती खेदखिन्न भई सो ऐसा अज्ञान है, सो अब ज्ञान भया।..
तव तिस विज्ञानधनके समूहविर्षे मन्न होय गया सो अब याकू देखिये तो किछू भी नाहीं है।" म यह प्रकट अनुभवमें आवे है। - भावार्थ अज्ञान है सो परसंयोग ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणया था। कछु दूजा तो वस्तु। 卐 था नाहीं । सो अव ज्ञानरूप परिणम्या तव किछू भी न रहा। तब इस अज्ञान के निमित्त .. राग, द्वेष, कर्ता, कर्म, सुख, दुःख, आदि भाव होय थे, ते भी विलाये गये। एक ज्ञान ही ज्ञान
रहि गया। तीन कालवर्ती अपना परका सर्व भावनिकू आत्मा ज्ञाता द्रष्टा हुया देखवो करी। IF आगै अमृतचंद्र आचार्य इस ग्रंथ करनेका अभिमानरूप कषायकू दृरि करता संता यथार्थ कहे हैं। .. सन्ततिलकाछन्दः
卐 - स्वशक्तिसंम ितवस्तुतचयाख्या कृतेयं समयम्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किञ्बदन्ति कर्तव्यमेवास्तचन्द्रसूरः ॥३२॥ ..