Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 655
________________ + अर्थ-अहो ! बडा आश्चर्यकारी ! सो यह आत्माका स्वाभाविक अद्भुत विभव है । जो इतः वय कहिये एकतरफ देखिये तो अनेकताकू धारता है, यह पर्यायष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो 5 सदा ही एकताकू धारता है, यह द्रव्यदृष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो क्षणभंगुर है, यह 1 भी क्रमभावी पर्यायष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो ध्रुव दीख है. यह सहभावी गुणदृष्टि है । जाते सदा उदयरूप दीखे है। बहुरि एकतरफ देखिये तो परमविस्तारस्वरूप दीखे है, यह + ज्ञान अपेक्षा सर्वगतदृष्टि है। बहुरि एकतरफ देखिये तो अपने प्रदेशनिहींकरि धारिये हैं, यह "प्रदेशनिकी अपेक्षादृष्टि है। ऐसा आश्चर्यरूप विभवकू आत्मा धारे है। 9 भावार्थ-यह द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मा वस्तूका स्वभाव है । सो जे पूर्व अज्ञानी है, तिनिके.. .. ज्ञानमें आश्चर्य उपजावे है । सो असंभवती वार्ता है । बहुरि ज्ञानीनिक वस्तुस्वभावमैं आश्चर्य नाहीं है। तोऊ अद्भुत परम आनंद ऐसा होय है, ऐसा कवह पूर्व न भया । यह आश्चर्य भी 1उपजे है । फेरि इस ही अर्थरूप काव्य है। पृथ्वीछन्दः कपायकलिरेकतस्स्खलति शान्तिरस्त्येकतो भोपहतिरेकातः स्पृशति ठक्तिरप्यकतः । जगत्रितयमकतः स्फुरति चियकारत्येकाः स्वभावमहिमाऽऽत्मनो विजयनेऽभुतादद्भुतः ॥ अर्थ-आल्लाका स्वभावका महिमा है सो अद्भुतते अद्भुत विजयरूप प्रवर्ते है । काहूकरि । ._ बाध्या न जाय है। कैसा है ? एकतरफ दखिये तो कषायनिका कलेश दीखे है । वहुरि एकतरफ। देखिये तो कषायनिका उपशमरूप शांत भाव है । बहुरि एकतरफ देखिये तो संसारसंबंधी पीडा प - दीखे है । बहरि एकतरफ देखिये तो संसारका अभावरूप मुक्ति भी स्पर्दो है । बहुरि एकतरफ देखिये तो केवल एक चैतन्यमात्र हो शोभे है। ऐसें अद्भुतते अद्भुत महिमा है। 45 भावार्थ-इहां भी पहले काव्यके भावार्थरूप ही जानना । यह अन्यवादी सुणि बढा आश्चर्य .. "करे हैं । सिनिके चित्तमै विरुद्ध भासे, सो समाहि शके नाही । अर तिनिके कदाचित् श्रद्धा 55555555 5 5 55 555円

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