Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 648
________________ 乐乐 乐 步兵 बसन्ततिलकाछन्दः नैकान्तसङ्गतदृशां स्वयमेव वस्तुतज्यव्यवस्थितिमिति प्रविलोकरन्तः।। स्थाद्वादशुद्धमधिकामधिगम्य सन्तो ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलङ्घयन्तः ॥१६॥ ६. अर्थ-वस्तु है सो स्वयमेव आपै आप अनेकान्तात्मक है ऐसे वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थाकू अनेकान्त-: " विर्षे संगत कहिये प्राप्तकरि जो दृष्टि ताकरि विलोकते देखते संते सत्पुरुष हैं ते स्याद्वादको अधि卐 कशुद्धीकू अंगीकारकरिकै अर ज्ञानी होय हैं। कैसे भये संते ? जिनेश्वर देवका स्याद्वादन्याय __ ताकू वादी उल्लंघन न करते हैं। 9 भावार्थ-जे सत्पुरुष अनेकांतकू लगाई दृष्टिकरि ऐसे अनेकांतरूप वस्तुतत्त्वकी मर्यादाकू देखते । हैं, ते स्याद्वादकी शुद्धिकू पायकरि ज्ञानी होय हैं । अर जिनदेवके स्याद्वादन्यायकू नाही उल्लंघे, "हैं । स्याद्वाद न्याय जैसे वस्तु तैसें कहे है । असत्कल्पना नाहीं करे है । ऐसे स्याद्वादका अधिकार " पूर्ण किया। " अब ज्ञानमात्रभावके उपाय अर उपय ए दाऊ भाव विचारिये हैं। जाते, उपाय तो जाकरि पावनेयोग्य भाव पाइये सो है। ताकू मोक्षमार्ग भी कहिये। बहुरि उपेयभाव जो पावनेयोग्य ) आदरनेयोग्य भाव होय ताकू कहिये । सो आत्माका शुद्ध सर्वकर्मनित रहित भाव है ताकू मोक्ष 卐भी कहिये । सो ययपि ज्ञानमात्र भाव एक है तथापि अनेकांतस्वरूप है । तामै स्याद्वादतें साध्या की ..हवा उपाय उपेय ए दोऊ भाव एकहीमें बने हैं । सो विचारिये हैं। | आत्मा जो वस्तु ताकै ज्ञानमात्रपणा होते भी उपाय-उपेयभाव विद्यमान है ही । जातें ताकै । एककै भी स्वयमेव आपैआप साधक अर सिद्ध इनि दोऊरूप परिणामीपणा है । आत्मा तो परि-॥ __णामी है। अर साधकपणा अर सिद्धपणा ए दोऊ परिणाम है । तहां जो साधकरूप है सो तो 5 उपाय है, बहुरि जो सिद्ध है सो उपेय है । यातें इस आत्माकै अनादितें लगाय मिथ्यादर्शन, 5 1. मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्रनिकरि अपना स्वरूपत च्युत होनेते संसारमै भ्रमताकै भलै प्रकार निश्चल 9999999) 卐भ

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