Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 651
________________ म卐 155 5 5 h5 5 5 55 59 ____भावार्थ-जो ज्ञाननयहीकू ग्रहणकरि क्रियानयकू छोडे है सो प्रमादो स्वच्छन्दभया इस 9 भूमिकू न पावे है। बहुरि जो कियानयहीकू ग्रहणकरि ज्ञाननयकू नाहीं जाने है सो भी शुभ कर्ममें संतुष्ट भया इस निष्कर्मभूमिकाकू नाही पावे है। बहुरि ज्ञान पाय निश्चल संयमकू अंगीॐ कार करे हैं तिनिकै ज्ञाननयके अर क्रियानयके परस्पर अत्यंत मित्रता होय है ते इस भूमिकाकुंभ 1पावे हैं । इनि दोऊ नयनिका ग्रहणत्यागका रूप का फल पंचास्तिकायग्रंथके अंतमें कया है,.. - तहांतें जानना । अब कहे हैं, इस भूमिकाकू पावे है सो हो आत्माकू पावे है । बनन्ततिलकाछन्दः वित्पिण्ड वण्डिमविलासिविकासहासः शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः । आनन्दमुस्थितमदास्खलितकरूपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलाचिंरात्मा ॥२२॥ अर्थ--जो पुरुष पूर्वोक्त प्रकार भूमिकाकू पावे है तिस हो पुरुषके यह आत्मा उदय होय .. " है। कैसा है आत्मा ! चैतन्यका जो पिंड ताका निरगलविलास करनेवाला जो विकास प्रफुल्लित म होना तिसरूप है हास कहिये फूलना जाका, बहुरि कैसा है ? शुद्धप्रकाशका भर कहिये समूह ताकरि भला प्रभातसारिखा उदयरूप है। बहुरि कैसा है ? आनंदकरि भले प्रकार तिष्ठया" 卐 सदा नाहीं चिगता है एकरूप जाका ऐसा है। बहुरि कैसा है ? अचल है अर्चि कहिये ज्ञानरूप) दीप्ति जाको । भावार्थ-इहां चिपिंड इत्यादि विशेषणते तो अनंतदर्शनका प्रकट होना जनाया है। बहुरि कैसा है ? अचल है ? शुद्धप्रकाश इत्यादि विशेषणते अनंतज्ञानका प्रकट होना जनाया है। अरु आनंदसुस्थित इत्यादि विशेषणकरि अनंत सुखका प्रकट होना जनाया है। अर 卐 अचलाचि इस विशेषकरि अनंतवीर्यका प्रकट होना जनाया है। पूर्वोक्त भूमीके आश्रयतें ऐसा - आत्मा उदय हो है । अब कहे हैं. ऐसा ही आत्मस्वभाव हमारे प्रकट होऊ ।

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