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संते ज्ञानमात्रभावके अपना स्वरूपकरि नाहीं होना अर पररूपकरि. होना देखते संत, श्रद्धान करते संते, जानते संते, आचरते संते मिथ्यादृष्टि भये संते, मिथ्याज्ञानी भये संते, मिथ्या चारित्री "भये संते, अत्यंत उपायोपेयभावतें भ्रष्ट भये संते संसारमैं भ्रमे ही हैं। अब इस अर्थ के कलशरूप मकाव्य कहे हैं।
बसन्ततिलकाछन्दः 卐
ये शानमात्रनिजभावमयीमकम्पा भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ।
ने माधकत्वमधिगम्य भवन्ति मिद्धा भूदास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ॥२०॥ ॐ अर्थ--जे भव्यपुरुष कोई प्रकारकरि कैसे हो दुरि भया है मोह अज्ञान मिथ्यात्व जिनिका
ऐसे हैं, ते ज्ञानमात्र निजभावमयी निश्चलभूमिकाकू आश्रय करे हैं । ते पुरुष साधकपणाकू अंगी"करकरि सिद्ध होय हैं। बहुरि जे मूड मोही अज्ञानी मिध्यादृष्टि हैं, ते इस भूमिकाकू न शय
अर संसारमैं भ्रमे हैं। - अर्थ-जे पुरुष गुरूके उपदेशतें तथा स्वयमेव काललब्धीकू पाय मिथ्यात्वसू रहित होय हैं. मते ज्ञानमात्र अपना स्वरूपकू पाय साधक होय, सिद्ध होय हैं । अर ज्ञानमात्र आत्माकू नाही , ..पावे हैं, ते संसारमैं भ्रमे हैं। अब कहे हैं, जो वह भूमिका ऐसे पावे हैं।
वसन्ततिलकाछन्दः स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भाययस्यहरहः स्वमिहीपयुक्तः।
ज्ञानक्रियानयपरस्परतीवमंत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ॥२१॥ 卐 अर्थ-जो पुरुष स्याद्वादन्यायका प्रवीणपणा अर निश्चलबतसमितिमुप्तिरूप संयम इनि दोऊ ॥ निकरि अपने ज्ञानस्वरूप आत्माविर्षे उपयोग लगावता संता आत्माकं निरंतर भावे है, सोही पुरुष ज्ञानमय अर क्रियानयकरि इनि दोऊनिकेविर्षे परस्पर भया जो तीन मैत्रीभाव तिसका पात्ररूप ॥ भया इस निजभाबमयी भूमिकाकू पावे है ।
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