Book Title: Samayprabhrut
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 637
________________ 專 फ्र 卐 फ्र भावार्थ - एकांती तो शयक आकारवत् ज्ञानकू उपजता विनसता देखि अर क्षणभंगकी संगतीवत् आपाका नाश करे है । बहुरि स्याद्वादी है सो ज्ञान ज्ञेयकी साथि उपजे विनशे है फ्र 5 तौऊ चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभवता संता ज्ञानी होता जीवे है, आपाका नाश नाहीं करे है । यह नित्यपणाका भंग है। पुनः 卐 卐 卐 कीर्ण विशुद्धबोधविसराकारात्मतत्वाशया वाञ्च्छत्युच्छलदच्छचिरपरिणतेभिन्नः पशुः किंचन । ज्ञानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंस्थिद्वस्तुवृत्तिक्रमात् ॥ १५ ॥ अर्थ - पशु अज्ञानी एकांतवादी हैं सो टंकोत्कीर्ण निर्मलज्ञानका फैलावस्वरूप एक आकार 5 卐 卐 जो आत्मतत्त्व, ताकी आशाकरि अर आपविषै उछलती जो निर्मल चैतन्यको परिणिति, तातें न्यारा किछू आत्माकुं चाहे है । सो किछू है नाहीं । बहुरि स्याद्वादी है सो नित्य ज्ञान है सो 5 अनित्यता प्राप्त होते भी उज्वल दैदीप्यमान चैतन्यवस्तुको प्रवृत्तिके क्रम ज्ञानके अनित्यताकूं अनुभवता संता ज्ञानकूं अंगोकार करे है । கககககககககககக* : 卐 फफफफफफफफफफ फ भावार्थ - एकांती तौ ज्ञानकुं एकाकार नित्य ग्रहण करनेकी वांछा करिअर ज्ञानचैतन्यकी परिणति उपजे विनशे है तातें भिन्न किछू माने है, सो परिणामसिशय परिणामी किछू न्यारा ही है नहीं । बहुरि स्याद्वादी है सो यद्यपि ज्ञान नित्य है, तौऊ चैतन्यकी परिणति क्रमतें उपजे fara है, ताके क्रम ज्ञानकी अनित्यता माने हैं, वस्तुस्वभाव ऐसा ही है, यह अनित्यपणाका भंग है। अब कहे हैं, जो ऐसा अनेकांत है, सो जे अज्ञानकार मोही मूढ हैं, तिनिकूं आत्मतत्त्वकं ज्ञान5 मात्र साधता संता स्वयमेव अनुभवनमें आवे है । 卐 卐 अनुष्टुप्छन्दः फ्र इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्र' प्रसाधयन् । आत्मतत्त्वमनेकांतः स्वयमेवानुभूयते ॥ १६ ॥ 卐 अर्थ -- ऐसे पूर्वोक्तप्रकार अनेकान्त है, सो जे अज्ञानकरि प्राणी मूढ भये हैं, तिनिक्कू समझावनेकूं आत्मतत्वकं ज्ञानमात्र साधता संता आपआप अनुभवगोचर होय है । 卐 प्रास ६१

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