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है। तातें ताकी व्यक्ति दर्शन ज्ञान हैं । तिनिमें ज्ञान साकार है, प्रकट अनुभवगोचर है । तातें "याहीके द्वारे आस्मा पहिचान्या जाय है । तातें या ज्ञानही प्रधानकरि आत्मतत्त्व कहा है।
ऐसा मति जानू', जो आत्माकू ज्ञानमात्र तत्त्व कहा है । सो एता ही परमार्थ है अन्य धर्म झूटेप
हैं आत्मामैं नाहीं हैं ऐसा सर्वथा एकांत किये मिथ्याष्टि होय है। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धका मत फआवे है। तथा वेदांतका मत आवे है । सो ऐसा एकांत बाधासहित है । ऐसा एकांत अभिप्राय- 4 1- करि मुनिव्रत भी पाले, अर आत्माका ज्ञानमात्रका ध्यान भी करे तो मिथ्याल कटे नाहों।
मन्दकषायनिके वशते स्वर्ग पावे तो पात्रो, मोक्षका साधन तो होय नाहीं। तातें स्थाबादकर
यथार्थ समजना । ऐसें इहां तांई गाथाका व्याख्यान अर तिस व्याख्यानके कलशरूप तथा सूच"निकारूप काव्य टीकाकारने किये । अब इहां टीकाकार विचार हैं--जो इस प्रथमैं ज्ञानकू । जप्रधानकरि ज्ञानमात्र आत्मा कहते आये। तहां कोई ऐसा तर्क करै, जो जैनमत तो स्याद्वाद है, . .. ज्ञानमात्र कहने में एकांत आया, स्याद्वादतें विरोध आया। तथा एक ही ज्ञानमै उपायतत्त्व अर 9 उपेयतत्त्व ए दोय कैसे बणे ? ऐसे तर्क के निराकरणके अर्थि किछू कहिये हैं। ताका श्लोक है। 卐 अत्र स्याद्वादशुद्धथं वस्तुतश्वव्यवस्थितिः । उपायोपेयभावश्च मनाम्भूयोऽपि चिन्त्यते ॥५४॥ ' HF अर्थ इहां इस अधिकारविर्षे स्यावादके शुद्धताके अर्थि वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था है सो विचा-- "रिये है तथा एक ही ज्ञानमें उपायभाव अर उपेयभाव किछु एक फेरि भी विचारिये है। 9 भावार्थ-यद्यपि इहां ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व कहा है तथापि वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक ____ अनेक धर्मस्वरूप है, सो स्थाद्वादते सधे है । सो ज्ञानमात्र आत्मा भी वस्तु है, ताकी व्यवस्था " 'स्याद्वादकरि साधिये है। अर इस ज्ञानही मैं उपायभाव अर उपेयभाव कहिये साध्यसाधकभाव 卐. ..विचारिये है। अब याकी व्यवस्था कहे हैं। स्याद्वाद है सो समस्तवस्तूका साधनेवाला एक
निर्वाध अर्हत्सर्वज्ञका शासन है मत है। सो स्याद्वाद सर्ववस्तु अनेकांतात्मक हैं ऐसे कहे है।