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कहे । परमार्थभूत आत्माका स्वरूप शुद्ध कैसे जान्या जाय ? तातें ज्ञान ही कहे। छद्मस्थ ज्ञानी । आत्माकू पहिचाने तातें ज्ञानहीकू आत्मा कहिकरि, अर इस ज्ञानमै अनादि अज्ञानते शुभाशुभ है उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्ति है ताकू दूरि करि, अर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविर्षे प्रवृत्तिरूप स्व
समयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गविर्षे आत्माकू परिणमाय, अर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त होय तब म 卐 फेरि त्यागग्रहणकू किछू न रहै । ऐसा साक्षात् समयसारस्वरूप पूज्ञान परमार्थभूत शुद्ध ठहरै। __ ताकू देखना। ॐ तहां देखना ही तीन प्रकार जानना । एक तो शुद्धनयका ज्ञानकरि याका श्रद्धान करना । .. सो यह तो अविरत आदि अवस्था में भी मिथ्यात्वके अभावतें होय है। बहुरि दूसरा ज्ञानश्रद्धान
भये पीछे वाद्य सर्व परिग्रहका त्यागकरि याका अभ्यास करना । उपयोग ज्ञानहीविर्षे थांभना है + सो जैसे शुद्धनयकरि अपना स्वरूपकू सिद्धसमान जान्या श्रद्वान किया, तैसा ही ध्यानविषे ले " एकाग्रचित्तक ठहरावना । फेरि फेरि याहीका अभ्यास करना । सो यह देखना अप्रमत्तदशामें 卐 + होय है । सो जहाँ ताई ऐसे अभ्यासतें केवलज्ञान उपजै तहां ताई यह अभ्यास निरंतर रहै। यह ।।
देखनेका दूसरा प्रकार है । सो इहां ताई तो पूर्णज्ञान शुद्धनयके आश्रय परोक्ष देखना है । बहुरि । 卐 तीसरा यह है, जो केवलज्ञान उपजै तब साक्षात् देखना होय है। तब सर्व विभावनितें रहित ... होय सर्वका देखनजाननहारा ज्ञान है सो यह पूर्णज्ञानका प्रत्यक्ष देखना ही सो यह ज्ञान है" ॐ सो ही आत्मा है । अभेदविवक्षामें ज्ञान कहौ तथा आत्मा कही किछू विरोध न जानना। अव ॥ 1- इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः पर अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमान्मनियतं बिभ्रत्पृथग्यस्तुता मादानोज्झनशून्यमतदमलं ज्ञानं तथाऽवस्थितम् ।
___ मध्यावन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥४२॥ - + अर्थ यह ज्ञान है सो तैसें अवस्थित भया है, जैसे याका महिमा निरंतर उदयरूप तिप्ठे
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