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ॐ यद्वा ज्ञानेन परद्रस्य गृहीतु मोक्तुं चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूस्मिद्रन्यस्य मूर्तपुद्गलद्रम्पत्वादाहार 1- ततो ज्ञानं नाहारकं भवत्यतो बानम्य देहो नाशंकनीयः ।
__ अर्थ—याप्रकार जाका आत्मा अमूर्तिक है सो निश्चयकरि आहारक नाहीं है। जातें आहार १०॥ है सो मूर्तिक है । सो आहार पुद्गलमय है । बहुरि जो परद्रव्य है सो ग्रहण करनेकू नाहीं समर्थ
हजिये है । अर लोडनेकू समर्थ न हूजिये है। सो कोई ऐसाही आत्माका गुण है, प्रायोगिक है। प्र तथा वैरसिक है। तातें जो विशुद्ध चेतविता आत्मा है सो किछु ही परद्रव्यकू जीव अजीवकूम - नाहीं ग्रहण करे है । बहुरि किछू ही परद्रव्यकू नाहीं छोड़ें है।
टीका-इहाँ आत्मा कहनेत ज्ञानका ग्रहण है, जाते, अभेदविवक्षात लक्षणवियें ही लक्ष्यका प्र व्यवहार है। इस न्यायतें आत्माकू ज्ञान ही कहते आवे है। तातें टीका करे हैं । जो, ज्ञान है।
सो परवलय किंचिन्मात्र भी नाहीं ग्रहण करे है, अर किंचिन्मात्र भी नाहीं छोडे है। जाते। 卐 प्रायोगिक गुण काहये परनिमित्ततें भया जो गुण ताकी सामयतें तथा वैनसिक कहिले स्वाभा-'
विक गुणकी सापयतें दोऊ प्रकारतें ज्ञानकरि परद्रव्यका ग्रहण करनेका अर छोडनेका असम ॐ र्थपणा है। वह रे अमूर्तिक आत्मद्रव्य जो ज्ञान ताकै मूर्तिक पुद्गलद्रव्य आहार नाहीं है।' 1- अमूर्तिकके मूर्तिक आहार होय नाहीं । तातें ज्ञान आहारक नाहीं है। यातें ज्ञानके देहकी संका ..
॥ न करणी। 4भावार्थ-ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है । अर आहार है सो कर्मनोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक ।
" है। तातें परमायतें आत्माके पुद्गलमय आहार नाहीं है। बहुरि आत्माका ऐसा ही स्वभाव " 卐 है, सो परद्रव्यकू तौ ग्रहण ही नाहीं करे है। स्वभावरूप परिणमू तथा विभावरूप परिणमू, ___अपने ही परिणामका ग्रहण त्याग है। परद्रव्यका तो ग्रहण त्याग किछु भी नाहीं है। ताते 卐 आत्माके पुद्गलमय देहस्वरूप जो लिंग है, वेष है, बाह्यचिन्ह है, सो मोक्षका कारण नाहों है।)
ताकी सूचनिकाका श्लोक है।
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