________________
55
- अचल हौं। सो मेरे यह कालकी आवली प्रवाहरूप अनंत है सो इसही भोगनेरूप जावो । समय " उपयोगकी प्रवृत्ति अन्य विर्षे मति जावो ।
भावार्थ-ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी पेसा तृप्त भया है, जो, भावना करते मानू , 1- साक्षात् केवली ही भया । सो ऐसा ही रहना अनंत काल चाहे है। सो सत्य है । याही भावना.
"तें केवली होय है केवलज्ञान उपजनका परामर्थ उपाय यही है। बाह्य व्यवहार चारित्र है सो 卐 इसहीका साधनरूप है। अर इस विना व्यवहारचारित्र है सो शुभकर्मकू वांधे है। मोक्षका - उपाय नाही हे । फेरि काव्य कहे है।
सन्ततिलकाछन्दः यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रमाणां मुक्तं फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः ।
आपातकालरमणीयमुदरम्यं निष्कर्म गर्ममयमति दशान्तरं सः ॥३६॥ 卐 अर्थ-जो पुरुष पूर्वे अज्ञान भावकरि किये जे कर्म तेही भये विषके वृक्ष तिनिका फल .. उदय आया ताकू ताका स्वामी होय न भोगवे हैं। अर निश्चयकरि अपने आत्मस्वरूपहीत तृप्त का है। अन्य किछू तृष्णा नाही करे है। सो पुरुष वर्तमान कालविर्षे तो सुन्दर रमनेयोग्य, अर - आगामी कालविर्षे जाका फल सुन्दर रमनयोग्य ऐसा कर्मनितें रहित स्वाधीन सुखमयी दशांतर कहिये ऐसी दशा संसार अवस्थामै पूर्वे कबहू न भई ऐसी अन्य स्वरूप दशाकू प्रास होय है।'
भावार्थ-इस ज्ञानचेतनाकी भावनाका यह फल है। याके भावनात अत्यंत तृप्त रहे हैं, अन्य तृष्णा न रहे है। अर आगामी केवलज्ञान उपजाय सर्वकर्मनितें रहित मोक्ष-अवस्थाकू म प्राप्त होय है । अब उपदेश करे हैं, जो ऐसे कर्मचेतना अर कर्मफल चेतनाका त्यागको भावना
करि अज्ञानचेतनाका अभावकू प्रकट नवाय ज्ञानचेतनाका स्वभावकू पूर्ण करि, ताकू नचावतें असते ज्ञानी जन हैं ते सदाकाल आनंदरूप रहैं । इस अर्थ के कलशरूप काव्य हैं।
乐乐 乐乐 乐
乐乐 乐乐 乐乐 乐乐 乐*