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द्रव्यके स्वभावकरि न परिणमता संता है। बहुरि पुद्गलादि परद्रव्यकू अपने स्वभावकरि नाहीं. 5 परिणभावता संता है। अर पुद्गलादि परद्रव्य है निमित्त जाकूं ऐसा अपना ज्ञानदर्शनगुणकरि 5 भर्या परके त्याग करनेरूप स्वभावके परिणामकरि उपजता संता है, सो चेतयिता हैं निमित्त
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जाकू ऐसा अपना स्वभावका परिणामकरि उपजता जो पुद्गलादि परद्रव्य ताकू अपने स्वभावकरि त्यागे है । ऐसा व्यवहार कीजिये है। ऐसे यह आत्माके ज्ञान दर्शन चारित्र तेही भये पर्याय तिनका निश्चय व्यवहारका प्रकार है । ऐसे ही अन्य भी जे केई पर्याय हैं तिनि सर्व ही 5 पर्यायनिका निश्चय व्यवहार जानना |
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भावार्थ -- आत्माका शुद्धनयकरि एक चेतनामात्र स्वभाव है । ताके परिणाम देखना, जानना, श्रद्धना, परद्रव्यते निवृत्त होना है। तहां निश्चयनयकरि विचारिये तब आत्मा परद्रव्यका 卐 5 ज्ञायक न कहिये, दर्शक न कहिये, श्रद्धान करनेवाला न कहिये, त्याग करनेवाला न कहिये । जातें परद्रव्यकै अर आत्माकै निश्चयकरि किछू भी संबंध नाहीं है । जो ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान 卐 5 करनेवाला, त्याग करनेवाला, ए सर्व भाव हैं सो आप ही है । भावभावकका भेद कहना सो भी व्यवहार है । अर परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान करनेवाला, त्याग करनेवाला कहिये है । फ्र सोभी व्यवहारनयकरि कहिये हैं । जातें परद्रव्यकै अर आत्माका निमितिनैमित्तिक भाव है । सो फ्र परकै निमित्ततें कि भाव भये देखि व्यवहारी जन कहे हैं, जो परद्रव्यकू जाने है. परद्रव्यकूं देखे हैं, परद्रव्यका श्रद्धान करे है, परद्रव्यकूं त्यागे है । ऐसें निश्चय व्यवहारका प्रकार जानि यथावत् श्रद्धान करना । अब इस अर्थ के कलशरूप काव्य कहे हैं
शार्दूलविक्रीडित च्छन्दः
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शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित् । ज्ञानज्ञयमति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यान्तर चुम्बनाकुल धियस्तत्वाच्च्यवन्ते जनाः ||२२|| अर्थ - आचार्य कहे हैं--जो शुद्ध द्रव्यके निरूपणविषै लगाई है बुद्धि जाने बहुरि तत्त्वकूं