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5 सम्यक्प्रकार घेतना ताकूं अनुभवे हैं। कैसी है ज्ञानवेतना ! चञ्चत् कहिये चिमकती जागती जो चैतन्यरूप ज्योति तिसमयी हैं । बहुरि कैंसी ह ? अपना ज्ञानरूप रस ताकरि सिंच्या है भुवन फ्र कहिये तीन लोक जीहि ।
समय
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भावार्थ -- जनिका राग द्वेष गया अर अपने चैतन्य स्वभावका अंगीकार भया अर अतीत
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| अनागत वर्तमान कर्मका ममत्व गया ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्यतै न्यारे होय चारित्र अंगीकार करे हैं। ताके बलतें कर्मचेतना अर कर्मफलचेतनात न्यारी जो अपनी चैतन्यके परिणमनस्वरूप ज्ञानवेतना ताकू अनुभवन करे हैं। इहां तात्पर्य यह जानना - जो पहले तो कर्मचेतना अर कर्मफल Paani भन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम अनुमान स्वसंवेदन - प्रमाणतें जानै अर 卐 ताका श्रद्धान- प्रतीति दृढ करै सो यह तो अविरत देशविरत प्रमत्त अवस्थामैं भी होय है।
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बहुरि जब अप्रमत अवस्था होय है, तत्र अपना स्वरूपहीका ध्यान करे हैं। तब ज्ञानचेतनाका जैसा श्रद्धा किया तिसविपैं लीन होय है। तब श्रेणी चढि केवलज्ञान उपजाय साक्षात् ज्ञान- 5 चेतनारूप होय हैं, ऐसें जानना । अब इस अर्थ गाथामैं कहे हैं। तहां अतीत कर्मतें ममत्व छोड़े सो प्रतिक्रमण है; आगामी न करनेकी प्रतिज्ञा करें सो प्रत्याख्यान है, वर्तमानकर्म उदय आया 卐 ताका ममत्व छोडे सो आलोचना है, ऐसा चारित्रका विधान है, ताकूं कहे हैं। गाथा
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कम्मं जं पुव्वकथं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं ।
तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिकमणं ॥ ७५ ॥
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कम्मं जं सुहमसुहं जह्मिय भावेण वज्झदि भविस्सं । तत्तो णियत्तदे जो सो पक्क्क्खाणं हवे चेदा ॥ ७६ ॥
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