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अनुभवता है ऐसा पुरुषकें एक द्रव्यविषं प्राप्त भया अन्यद्रव्य किछू भी न कदाचित् प्रतिभासे है । बहुरि ज्ञान है सो अन्य ज्ञेय पदार्थकुं जाने है सो
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यह ज्ञानका शुद्ध स्वभावका उदय है, सो यह जन लोक हैं ते अन्यद्रव्य के ग्रहणविर्षे आकुल है बुद्धि जिनिकी ऐसे भये संते शुद्धस्वरूपतें क्यों चिगे हैं ? 卐
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भावार्थ- शुद्धनकी दृष्टिकरि तत्त्वका स्वरूप विचारतें अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यविषै प्रवेश नाही फ दीखे है । अर ज्ञानविषे अन्य द्रव्य प्रतिभासे है सो यह ज्ञानकी स्वच्छता का स्वभाव है। किछू ज्ञान तिनिकं ग्रहण न कीये है । अर यह लोक अन्य व्यका ज्ञानविषै प्रतिभास देखि अर अपना 5 ज्ञानस्वरूपतें छूटि अर ज्ञेयके ग्रहण करनेकी बुद्धि करे हैं सो यह अज्ञान है । ताकी आचार्यने करुणाकर कया है । जो ए लोक तत्त्वतें क्यों चिगे हैं ? फेरि इस ही अर्थकू दृढ़ करे हैंI
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मन्दाक्रान्ताछन्दः
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शुद्धद्रव्यस्वरस भवनाकि स्वभावस्य शेष-मन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः । ज्योत्स्नारूपं स्नपयति ध्रुवं नैव तस्यास्तिभूमिज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ||२३|| अर्थ - जिस द्रव्यका जो निज भाव होय सो स्वभाव है। सो आत्माका ज्ञानचेतना स्वभाव है । ताकै शुद्ध द्रव्य जो शुद्ध आत्मा ताका निजरस ज्ञानचेतना है । ताके होते ते अन्य बाकी 15 जा द्रव्य है सो कहां होय ? किछू भी न होय । परमार्थकरि संबंध नाही अथवा अन्य दूव्य ताके यहू स्वभाव कहा होय ? किछू भी न होय । परमार्थकरि संबंध नाहीं । जैसें ज्योत्स्ना जो 5 चांदणी ताका रूप पृथ्वीकू उज्वल करे है, तो कहां पृथ्वो चांदणीकी होय जाय ? किछू भी न होय । तैसें ज्ञान है सो ज्ञेयपदार्थकूं सदाकाल जाने है, तौ ज्ञेय ज्ञानका किछू कहा होय जाय ? किछू भी नहीं है ।
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भावार्थ- शुद्धनकी दृष्टिकरि देखिये तब कोई द्रव्यका स्वभाव काढू अन्यद्रव्यरूप होय नाहीं । जैसें चांदणी पृथ्वीकूं उज्वल करे है परंतु चांदणीकी पृथ्वी किछू होय नाहीं है । तेसे ज्ञान ज्ञेयकू क
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