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जाने है परंतु ज्ञानका शेय किछू होय नाहीं है । आत्माका ज्ञान स्वभाव है सो याकी स्वच्छता के - ज्ञेय स्वयमेव झलके है। तौऊ ज्ञानम तिनि शेषनिका प्रदेशमाहीं है। जब कहे हैं, जो ज्ञान, " राग द्वेषका उदय कहां ताई है ? ताका काव्य
मन्दाक्रान्ताछन्दः राग पदयमुदयते ताबदेतन्न यावद् झानं ज्ञानं भवति न पुनर्योध्या याति गोभ्यः ।
ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यकृताज्ञानभावं भावोभावो भवति तिरयन्येन पूर्णस्वभावः ॥२४॥
अर्थ-यहु ज्ञान जेते ज्ञानरूप न होय है, अर बोध्य कहिये ज्ञेय सो शेयभावकू प्राप्त न होप 卐 है, तेते राग द्वेष दोऊ उदय होय हैं । तातें यह ज्ञान है सो ज्ञानरूप होऊ । कैसा होऊ! दूरी .. किया है अज्ञानभाव जाने ऐसा होऊ । तिस कारणकरि भाव अभाव ज्ञानमैं होय हैं । तिनिक
दूरी करता संता पूर्ण स्वभाव होय । जन टीका-जेते ज्ञान ज्ञानरूप न होय, ज्ञेय ज्ञेयरूप न होय, तेते राग द्वेष उपजै है । तातें "यह ज्ञान अज्ञानभावकू दरिकरि ज्ञानरूप होऊ । जिस कारण ज्ञानमैं भाव अर अभाव ए दोय
अवस्था होय हैं, सो तो मिटि जाय । अर ज्ञान पूर्णस्वभावकू प्राप्त होय जाय । यह प्रार्थना है। "आगे कहे हैं कि, राग द्वेष मोहते दर्शनज्ञानचारित्रका घात होय है, सो दर्शन ज्ञान चारित्र 卐 पुद्गल द्रव्यमें तौ हैं नाहीं, आत्माहीमैं दशनज्ञानचारित्र हैं । अर आत्माहीमें अज्ञानते राग द्वेष मोह हैं । सो अज्ञानतें अपना ही घात होय है; ऐसा निर्णय करे हैं । गाथा
दसणणाणचरित्तं किंचिवि पत्थि दु अचेदणे विसए। तह्मा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ॥५८॥ दंसणणाणचरित्तं किंचिवि णत्थि दु अचेदणे कम्मे । तह्मा किं घादयदे चेदयिदा तेसु कम्मेसु ॥५९॥
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