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रथोद्धताछन्दः रागजन्मनि निमित्त नां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरंति न हि मोहवाहिनी शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः ।।२८॥ .. ____ अर्थ-जे पुरुष रागकी उत्पत्तिविर्षे परद्रव्यहीका निमित्तपणा माने हैं, अपना किछ भी हेतु जज न माने हैं, ते मोहरूप नदीके पार नाहीं उतरे हैं । जातें शुद्धनयका विषयभूत जो आत्माका " स्वरूप ताका ज्ञानकरि रहित अंध है बुद्धि जिनिकी ते ऐसे हैं। + भावार्थ-शुद्धनयका विषय आत्मा अनंत शक्तीकू लिये चैतन्यचमत्कारमात्र नित्य अभेद एक 卐
है। तामैं यह नगलता है, जो जैसा निमित्त मिले से आप परिणमे है। ऐसा नाहीं, जो पैला .. 卐परिणमा तैसे परिणमे है । अपना किछू पुरुषार्थ नाहीं है । सो ऐसे आस्माका स्वरूपका जिनिकू । .. ज्ञान नाहीं है, ते ऐसे माने हैं, जो आत्मा परद्रव्य परिणमावै है, तैसे परिणमे है । ते ऐसे मानने
वाले मोहकी वाहिनी जो सेना अथवा नदी, राग द्वेषादि परिणाम तिनितें पार नाही होय है।। - तिनिके राग द्वेष नाहीं मिटे हैं । जातें अपना पुरुषार्थ तिनिके होनेमें होय तौ तिनिके मेटनेमें " भी होय । अर परहीके किये होय तो पैला किया ही करै । अपना मेटना काहेका ? तातें अपना किया होय अपना मेटया मिटै, ऐसे कचित् भानना सम्यग्ज्ञान है। आगै इस कथन प्रगट करे ॥
हैं-जो स्पर्शरसगंधवर्ण शब्दरूप पुद्गल एरेणमे है, ते इंद्रियनिकरि आत्माके जाननेमैं आवे हैं 卐 तथापि ते जड हैं । आत्माकू किछु कहे नाहीं है, जो हम• ग्रहण करौ । आत्मा ही अज्ञानी होय. .तिनिक भले बुरे मानि रागी द्वेषी होय है । ऐसें गाथामैं कहे हैं।
गिदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि । ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदिय अहं पुणो भणिदो ॥६५॥ पोग्गलदव्वं सदुत्तह परिणदं तस्स जदि गुणो अपणो। तमा ण तुमं भणिदो किंचिवि किं रूससे अवुहो ॥६६॥
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