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मानकालमें एक अंश था, ताहीकू वस्तु मानि ऋजुसूत्रनयका विषयका एकांत पकडि अर पेसें। माने है-जो करे है सो भोगवे नाहीं अन्य भोगवे है अर भोगवे है सो करे नाहीं अन्य करे है। सो मिथ्यादृष्टि है, अरहंतका मतका नाहीं । जाते पर्यायके क्षणिकपणा होते भी द्रव्यरूप चैतन्य चमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य है। जैसे प्रत्यभिज्ञानकरि ऐसें जानै जो बालक अवस्थामें 5
मैं था सो ही अब तरुण अवस्थामें तथा वृद्ध अवस्थामै हौं । ऐसें जो अनुभवगोचर स्वसंवेदनमें + आवे अर जिनवाणी ऐसे ही गावे, ताकुन माने, सो ही मियादृष्टि कहावै ऐसें जानना । अब इस अर्थक कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः आत्मानं परिशुद्धीप्सुभिरतिव्याप्ति प्रपद्यांधकैः कालोपाधियलादशुद्धिमधिको तत्रापि मत्वा परैः।
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प प्रथकः शुद्ध सूत्रं रितरात्मा व्युज्जित एष हारवदहो निःशुत्रमुक्त क्षिभिः ॥१६॥ ॥ ___अर्थ-आत्माकू समस्तपणे शुद्ध इच्छक जे पृथुक कहिये वौद्धमतो, तिनिने तिस आत्माविर्षे ।
कालके उपाधिक बलते अधिक अशुद्धता मानिकरि अतिव्याति पायकरि अर शुद्ध ऋजसूत्रनयके + प्रेरै हुये चैतन्यकू क्षणिक कल्पिकरि आंधेनिने आत्माकू छोड्या । जातें आस्मा तो द्रव्यपर्याय-5 .. स्वरूप था, सो सर्वथा क्षणिकपर्यायस्वरूप मानि छोडि दिया, तिनिकै आत्माकी प्राप्ति न भई। 15
इहां हारका दृष्टांत है जेसे मोतीनिका हार नामा वस्तु है, सा. सूत्रवि मोती पोये हैं, ते " 卐 भिन्नभिन्न दीखे हैं । सो जे हार नामा वस्तूकू रसूत्रसहित मोतो पोये नाहीं दोखें हैं अर मोती.. ... निहीकू न्यारेन्यारे देखि ग्रहण करे हैं, तिनिकै हारकी प्राप्ति नाहीं होय है। तेसे ही जे आत्मा-1 " का एक नित्य चैतन्यभावकू नाहीं ग्रहण करे हैं अर समयसमय वर्तना परिणामरूप उपयोगकी ' प्रवृत्तीकू देखि तिसकू सदा नित्य मानि कालका उपाधीतें अशुद्धपना मानि ऐसें जाने हैं-जो॥ 1- नित्य माने कालका उपाधि लागै तब आत्माकै अशुद्धपणा आवै तब अतिव्याप्ति दूषण लागै,
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