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हम कहे हैं ऐसा अनुमान करना — जो शायकभावकै सामान्य अपेक्षाकरि ज्ञानस्वभावरूप अबस्थितपणा होते भी कर्मतें उपजे जे मिध्यास्त्र आदि भाव, तिनिका ज्ञानका समयविषे अनादिहीतें 5 ज्ञेयका अर ज्ञानका भेदविज्ञानका शून्यपणा पर आत्मा जानता संताके विशेष अपेक्षाकरि अज्ञानस्वरूप जो ज्ञानका परिणाम, ताक करने कर्तापणा है, यह अनुमान करने योग्य है, तो क 5 कहांतांई करना ? जेतें जिस काल ज्ञेयज्ञानका भेदविज्ञानका पूर्णपणातें आत्माही आत्मा जनताकै विशेष अपेक्षाकरि भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामकरि परिणमता संताके केवल ज्ञातापण साक्षात् कर्तापणा होय, तेतें कर्तापणा का अनुमान करना ।
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भावार्थ - केई जैन मुनि भी स्याद्वादवाणी मैं नीका न समझिकरि सर्वथा एकांतका
अभिप्राय करे तथा विवक्षा पलटिकरि कहे--जो आत्मा तौ भावकर्मका अकर्ता ही है, कर्म फ
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5 प्रकृतिका उदय है सो ही भावकर्मकू करे है । अज्ञान, ज्ञान, सोवना, जागना, सुख, दुःख, मिथ्या, असंयम च्यारी गतिमैं भ्रमण जे किछू शुभ अशुभ जेतेक भाव हैं ते सर्व कर्म करे है । 5 जीव तो अकर्ता है। ऐसा ही शास्त्रका अर्थ करें - जो वेदका उदयतें स्त्रीपुरुषका विकार होय हैं, बहुरि अपघात परघात प्रकृति उदयतें परस्पर घात प्रवतें है । ऐसा एकांतकरि जैसें सांख्यमती सर्व प्रकृतिका कार्य माने हैं पुरुष अकर्ता माने हैं, तैसे बुद्धिके दोपकरि जैन मुनीनिका भी
मानना आया । तब जैनवाणी स्याद्वाद है, तातें सर्वथा एकांत माननेवालेपरि वाणीका कोप
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अवश्य होगा । बहुरि वाणीके कोप के भयतें विवक्षा पलटिकरि कहै— जो आत्मा अपना आत्मा
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5 का कर्ता है, तातें भावकर्मका कर्ता तौ कर्म ही है अर अपना कर्ता आत्मा है, ऐसें कथंचित् 卐
कर्ता आत्मा कहते वाणीका कोप न होयगा, तो वह कहना तो मिथ्या हैं। आत्मा द्रव्यकरि
नित्य है, लोकपरिमाण असंख्यातप्रदेशी हैं । सो यामै तौ किछू नवीन करनेकू है नाहीं । नाहीं
काकूं करै अर भावकर्मरूप पर्याय हैं तिनिका कर्ता कर्म बताये तो आत्मा तो अकर्ता ही रह्या,
卐 तब वाणीका कोप कैसें मिटया ? तातैं आत्माकै कर्तापणा अर अकर्तापणाकी विवक्षा यथार्थ क
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