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मानना ही स्याद्वाद मानना सांचा होय है । सो ऐसा है—जो आत्माकै ज्ञायक स्वभाव तो सामान्य अपेक्षाकरि है ही, परंतु ज्ञानविशेषकी अपेक्षा आपापरका भेदविज्ञान विना परकू आत्मा जाने है, सो इस अज्ञानरूप अपना भावका कर्ता है। अर जब तिस ज्ञानविशेषकी अपेक्षा करि आपापरका भेदविज्ञान होय, तिस ही कालतें लगाय भेदविज्ञानकी पूर्णता भये आपकूं आप 5 5 जाने अर ज्ञानपरिणामकरि परिणमैं तब केवल ज्ञाता भया साक्षात् अकर्ता होय है ऐसें मानना सत्यार्थ स्याद्वादका प्ररूपण है । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
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शार्दूलविक्रीडित छन्दः
मा कर्त्तारमी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या हवाप्यार्हताः कर्त्तारं कलवन्तु तं किल सदा भेदावोवादधः । 卐
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नियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परं ||१३||
ऊर्ध्व अर्थ - आर्हत कहिये
अर्हतके भतके जैनी जन हैं ते आत्माकं सर्वथा अकती सांख्यमती
निकी ज्यौं मति मानू । तिस आत्माकूं भेदविज्ञान भये पहले कती मानू अर भेदज्ञान भये ताके फ
एक ज्ञाता ही आयें
उपरि उद्धत ज्ञानमंदिरवियें निश्चत नियमरूप कतीपणाकरि रहित निश्चल
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आप प्रत्यक्ष देखो।
भावार्थ - सांख्यमती पुरुषकं सर्वथा एकांतकरि अकती शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र माने हैं । सो ऐसें मानने पुरुषकै संसारका अभाव आवे है । अर प्रकृतिकै संसार माने तौ प्रकृति तौ जड 卐 फ है, ताकै सुखदुःख आदिका संवेदन नाहीं । ताकै काहेका संसार ? इत्यादि दोष आवे हैं । यातें सर्वथा एकांत वस्तूका स्वरूप नाहीं । तातैं ते सांख्यमती मिध्यादृष्टि हैं । तैसें जैनी भी माने हैं 卐 तौ मिथ्यादृष्टि होय हैं । तातें आचार्य उपदेश करे हैं-जो, सांख्यमतीनिकी ज्यों जैनी आत्माकुं
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सर्वथा अकती मति मानू । जहांतांई आपापरका भेदविज्ञान न होय, तहांताई तौ रागादिक अपने
चेतनरूप भावकर्मनिका कती मानू । अर भेदविज्ञान भये पीछे शुद्धविज्ञानघन समस्त कतीपणा के
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5 अभावकरि रहित एक ज्ञाता ही मानू ऐसें एक ही आत्मा के विषै कती अकती दोऊ भाव 5
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