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सर्व ही जीवनिके एकांतकार अकर्तापणाकी प्राप्ति आवनेते जीव कर्ता है ऐसी जो श्रुति कहिये 卐 ■ 5 भगवन्तकी वाणी ताका कोप आवे है । सो दूर करनेकू योग्य नाहीं है । बहुरि वाणीका कोप फ दूर करनेकूं जो ऐसें कहै - जो कर्म है सो तौ आत्माके अज्ञानादि सर्व पर्यायरूप भाव हैं तिनिकं करे हैं । बहुरि आत्मा है सो एक अपने आत्माही द्रव्यरूप करे है, तातें जीव कर्ता है। ऐसा श्रुति कहिये वाणीका वचन मानिये है, तातें वाणीका कोप नाहीं होय हैं, ऐसा अभिप्राय करें तौ सो यह अभिप्राय मिथ्या है। जाते जीव है सो प्रथम तौ द्रव्यरूपकरि नित्य है, असंख्यात 卐 प्रदेशी है, लोकपरिमाण हैं, तहां नित्यका कार्यपणा वने नाहीं । जातें कृत कहिये कृत्रिम वस्तूका अर नित्यपणाका परस्पर एकपणाका विरोध है: नित्य कृत्रिम होय नाहीं । बहुरि एक आत्मा अवस्थित असंख्यात प्रदेशी हैं ताके जैसे पुद्गल के स्कंधमें परमाणु आय बैठे हैं अर निकसि जाय हैं, ताकै कार्यपणा बने है । तैसें याकै कार्यपणा नाहीं बने हैं जातें प्रदेशनिका आवना अर 卐 निकसि जाना होय तौ अवस्थित असंख्यातप्रदेशरूप एकपणाका व्याघात होय, बहुरि सकल 卐 लोकरूपी घरमात्र विस्तार परिमाण निश्चित अपना समस्तपणाका संग्रहरूप आत्माके प्रदेशनिका संकोचना अर फैलना तिस द्वारकरि भी ताके कार्यपणा बने नाहीं । जातें प्रदेशनिका संकोचना 卐 अर फैलना इनि दोऊनिकेभी सूके आले चामडेकी ज्यों नियमरूप अपना जो प्रदेशनिका विस्तार है तातें ताका हीनाधिक करनेका असमर्थपणा है । बहुरि जो ऐसे अभिप्रायमें वासना होय जो 5 वस्तुका स्वभावका सर्वथा मेटनेका असमर्थपणा है, तातें ज्ञायकभाव है सो तौ : ज्ञानस्वभावही करि 5 सदाकाल ही तिष्ठे हैं, सो तैसें तिष्ठता आत्मा मिथ्यात्वादि भावनिका कर्ता न होय है । जातें ज्ञायकपणाका अ कर्तापणाका अत्यंत विरुद्धपणा है, अर मिध्यात्व आदिभाव हैं ते होय ही हैं, 卐 . तातें तिनिका कर्ता कर्म ही है ऐसी प्ररूपणा कीजिये है। तहां आचार्य कहे हैं- ऐसी वासनाका उघडना है सो ही पहले कहा था 'जो आत्मा आत्माकूं करे है तातें कर्ता है' तिस माननेकू 5 अतिशयकरि हणे है घाते है । जाते- सदाकाल शायक मान्या तब आत्मा अकर्ता ही भया, तातें क
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