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अर्थ-जीवके मिथ्यात्वभाव होय है ताकू विचार है -जो निश्चयकरि यह कौन करे है? म तहां जो मिथ्यात्वनामा मोहकर्मकी प्रकृति पुदगलद्रव्य है, सो यह प्रकृति आत्माकू मिथ्याधि ॥
करे है। ऐसे मानिये तो सांख्यमतीकू कहे हैं-प्रकृति तौ तेरे मतमें अवेतन है, सो, अहो सांख्य+ मती, अचेतन प्रकृति जीवकै मिथ्यात्वभावका करनेवाला ठहरथा । सो यह बने नाहीं। अथवा "
ऐसे मानिये, जो यह जोव है सो पुद्गलद्रव्यकै मिथ्यात्वकू करे है । तो ऐसे मानै पुद्गलद्रव्यकी ।। मिथ्यादृष्टि ठहरे, जीव मिथ्यादृष्टि न ठहरे, सो यह भी बने नाहीं। अथका ऐसें मानिये जो " जीव अर प्रकृति ए दोऊ पुद्गलेद्रव्यकै मिथ्यात्वकू करे है। तो दोऊकरि किया ताका फल दोऊ .
ही भोगवै ऐसें ठहरै, सो यह भी बने नाहीं। अथवा ऐसे मानिये, जो पुद्गलद्रव्यनामा मिथ्या-" प्रवकू प्रकृति भी न करे है अर जीव भी न कर है, तो पुद्गलद्रव्य ही मिथ्यास्त्र है। सो ऐसें ॥
" मानना कहां मिथ्या झुठा नाहीं है । ताते यह सिद्ध होय है—जो मिथ्यात्वनामा जीवका भावके कर्म ताका कर्ता तौ अज्ञानी जीव है अर याके निमित्तते पुद्गल द्रव्यमें मिष्यास्वकर्मकी शक्ति) . निपजी है।
___टीका-मिथ्यात्व आदि भाव कर्म है, ताका कर्ता जोव ही है । जाते तिसकू अचेतन जो 5 .. प्रकृति, ताका कार्य मानिये तो तिस भावकर्मके भी अचेतनपणाका प्रसंग आवे है। बहुरि मिथ्यात्व,
आदि भाषकर्मका कर्ता जीव आपके ही आप है। जो जीवकरि पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्व आदि । - भाषकर्म किये मानिये, तौ भाषकर्म चेतन है, सो पुद्गलद्रव्यकै चेतनपणाका प्रसंग आवे है।
बहुरि जीव अर प्रकृति दोऊ ही मिथ्याव आदि भावकर्म के कर्ता नाही है, जातें प्रकृति अचेतन 卐 है, ताके भी जीवको ज्यौं ताका फल भोगनेका प्रसंग आवे है। बहुरि ये दोनू अकर्ता भी॥ ___ नाही, जातें पुद्गलद्रव्यकै अपने स्वभावहीतें मिथ्यास आदि भावका प्रसंग आवे है । तातें .. + मिथ्यात्व आदि भाषकमका जीव का है अर अपना भावकम है सो अपना कार्य है यह सिद्ध ।
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भया।