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माहीं जाने है; ते अज्ञानी मये कर्मकू करे हैं, से भावकर्मके कर्ता होय हैं, ऐसें अपने भावकर्मका क कर्ता अज्ञानतें चेतन ही है, ताकी सूचनिकाका काव्य है ।
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वसन्ततिलका छन्दः
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ये तु स्वभावनिवमं कलयन्ति नेममज्ञानमममहसो बत ते बराकाः ।
कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म कर्त्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ॥ १० ॥
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अर्थजे पुरुष वस्तुका स्वभावका पूर्वोक्त नियमकू नाहीं जाने हैं, तिनिका आचार्य वेद
करि कहे हैं । अहो अज्ञानविषै मन भया है मह कहिये पुरुषार्थ- पराक्रमरूप तेज जिनिका ते 卐 वक कहिये रांक भये संते कर्मकूं करे हैं, ज्ञानतें छूटि गये हैं तातें दूसरी तीसरी भावकर्मका 5
आप चेतन ही कर्ता होय है, अन्य नाहीं है ।
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अज्ञानी ही है,
भावार्थ - जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है सो वस्तुका स्वरूपका नियम तौ जाने नाहीं अर पर5 द्रव्यका कर्ता बनै, तब आप अज्ञानरूप परिणमैं, तब अपना भावकर्मका कर्ता अन्य नाहीं है । आगे इस कथन युक्तिकरि साधै । गाथामिच्छत्ता जदि पयडी मिच्छादिठ्ठी करेदि अप्पाणं । तहमा अवेदणा दे पयडी णणु कारगो पत्ता ॥ २१ ॥
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नीचे लिखी गाथाकी आत्मख्यात संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। सम्मत्ता जदि पयडी सम्मादिठ्ठी करेदि अप्पाणं ।
तहमा अचेदणा दे पयडी गणु कारगो पत्तो ॥
सम्यक्त्वं यदि प्रकृतिः सम्यग्दृष्टिं करोत्यात्मानं ।
तस्मादचेतना ते प्रकृतिनंनु कारकः प्राप्तः ॥
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