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5 ज्ञान है सो भी आप दृष्टिवत् ही है, तातें कर्मतें अत्यंतभिन्नपणातें निश्चयतें तिस कर्मका करना अर भोगना असमर्थ है. तिसपणातें कर्मकू करे नाहीं है, भोगवे नाहीं है । तौ कहा है ? केवल ज्ञानमात्रस्वभावपणात कर्म के बंध तथा मोक्षकुं तथा कर्मके उदय तथा कर्मकी निर्ज राकू केवल जाने ही है ।
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भावार्थ-ज्ञानका स्वभाव नेत्रकीज्यों दूरितें जानने का है, तातें करना भोगना ज्ञानकै नाहीं । 15 जो करना भोगना माने हैं, सो अज्ञान है । इहां कोई पूछे जो ऐसा तो केवलज्ञान है; अर जबताई मोहकर्मका उदय है तबताई तो सुखदुःखरागादिरूप परिणने ही है; अर दर्शनावरण 5 ज्ञानावरण वीर्या तरायका उदय है तहांताई अदर्शन अज्ञान असमर्थपणा होय ही है; केवल- फ्र ज्ञान पहले ज्ञाता द्रष्टा केसे कहिये ? ताका समाधान- जो पहले तो कहते ही आवे है तो स्वतंत्र 卐 tat भोगता परमार्थतें कर्ता भोक्ता कहिये हैं, सो जब मिटिया अज्ञानका अभाव 5 भया, तब परद्रव्यका स्वामीपणाका अभाव भया, तब आप ज्ञानी भया, स्वतंत्रपणे तो काहूका कर्त्ता भोक्ता होय नाहीं । अर आपकी निवलाईकरि कर्मउदयको बरजोरीकार जो कार्य होय 5 है, तातें परमार्थी मैं कर्ता भोक्ता न कहिये हैं । अर तिसके निमित्तते कछू नवीनकर्मरज 5 लागे भी है, तो ता इहां बंधमें न गणिये है । जो संसार है सो तो मिथ्यात्र है, मिथ्यास गये 5 पीछे संसारका अभाव ही होय है, समुद्र में बूंदकी कहा गणती ?
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बहुरि एता और जानना - जो केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूपही है अर श्रुतज्ञानी 卐 5 भी शुद्ध व आत्मा तैसा ही अनुभव है, प्रत्यक्ष परोक्षका ही भेद है । सो याके ज्ञानद्वानकी अपेक्षा तो ज्ञातादृष्टापणा ही है, बहुरि चारित्रकी अपेक्षा प्रतिपक्षी कर्मका जेता 卐 उदय है तेता घात है; सो याका नाश करनेका उद्यम है। जब कर्मका अभाव होसी, त 15 साक्षात् यथाख्यात चारित्र होती, तब केवलज्ञानको प्राप्ती होसी । बहुरि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी फ्र कहिये है सो मिथ्याका अभावही की अपेक्षा कहिये हैं। जो अपेक्षा न लीजिये, तौ ज्ञान सामान्य 卐
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