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वसन्ततिलवाहिन्दः शानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् ।
जानन्परं करणवेदनयोरभावात शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एत्र ॥६॥ अर्थ-ज्ञानी है सो कर्मक स्वतंत्र होय करें नाहीं है। तैसे ही वेदे नाहीं है। केवल तिस + कर्मस्वभावकू जाने ही है। ऐसे केवल जानता संता करनेका अर वेदनेका अभावतें शुद्ध- स्वभावके विर्षे निश्चित है सो निश्चयकरि मुक्त ही है-कर्मनितें छुटया ही कहिये।
भावार्थ-ज्ञानी कर्मका स्वाधीनपणे कर्ता भोक्ता नाहीं केवल ज्ञाता ही है। तातें शुद्ध । स्वभावरूप भया संता मुक्त ही है। जो कर्म उदय आवै भी है तौ ज्ञानीका कहा करे? जेते। " निबलाई रहै जेतें कर्म जोर चलावो, सवलाई क्रमतें बधाय कर्मका निमूल नाश करेहीगा । आगै इस ही अर्थकू फेरि दृढ करे हैं । गाथा
णवि कुम्वदि गावि वेददि णाणी कम्माइ बहु पयाराइ । जाणदि पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥१२॥
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि ।
जानाति पुनः कर्मफलं बंधं पुण्यं च पापं च ॥१२॥ .. आत्मख्यातिः-शानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचंतनाशून्यत्वेन च स्वयमक यादवेदयितृत्वाञ्च न कर्म करोति न वेदयते च । किंतु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्त्वात्कर्मबंध कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति । -
अत एतत् ! ___अर्थ-ज्ञानी है सो बहुत प्रकारके कर्मनिषू करे नाहीं है, वेदे नाहीं है । बहुरि कर्म के फलफूं. " पुण्यकू पापकू जाने है।
टीका-ज्ञानी है सो कर्मचेतनाकरि शुन्य है । बहुरि कर्मफलचेतनाकरि शून्य है । तिसपणाकरि स्वयं स्वतंत्र होय कर्ता नाहीं होय है । बहुरि स्वयं वेदक भी न होय है । तातें कमकू करें।
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