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जामख्याति:-यथात्र विषधरो विषभाव स्वयमेव न सुचति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच न संचति । " म तपा किलामन्यः प्रकृतिस्वमा स्वयमेव न {चति प्रमोचनसमर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाञ्च न मुचति, नित्यमेव भानश्रुतज्ञान
लक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाशानित्वात् । अतो नियम्यते ज्ञानी प्रकृतिस्वभावे सुस्थित्वावदक एव । ___ अर्थ-अभव्य है सो प्रकृति कहिये कर्मका उदयस्वभाव है ताही न छोडे है। जो भलैप्रकार के
अभ्यास करि शास्त्रनिकू पढे है, तोऊ प्रकृति बदले नाही है। जैसे सर्प है सो गुडसहित दूधकू .. । पीवता संता भी निर्विष नाही होय है। म टीका-जैसे इस लोकविय सर्प है, सो अपना विषभाव, ताही आप आप भी नाहीं छोडे ..
है। बहुरि विषभावके मेटनेकू समर्थ ऐसा मिश्रीसहित दूधके पोवनेते भी नाही छोडे है। तैसें ।
प्रगटपणे अभव्य है सो प्रकृतिका स्वभावकू स्वयमेव भी नाही छोडे है, वहुरि प्रकृतिस्वभावके । - छुडावनेकू समर्थ जो द्रव्यश्रुत शास्त्रका ज्ञान, ताते भी नाही छोडे है। जाते याकै नित्य ही
भावभुतज्ञानस्वरूप जो शुद्धात्मज्ञान, ताका अभावकरि अज्ञानीपणा है। यातें ऐसा नियम कीजिये है, जो अज्ञानी प्रकृतिस्वभावविय तिष्ठवापगातें वेदक हो हैकर्मका भोक्ता ही है।।
भावार्थ-अज्ञानी कर्मका फलका भोक्ता ही है यह नियम कहा । तहां अभव्यका उदाहरण युक्त है, जाका ऐसा स्वयमेव स्वभाव है, यह नियम कह्या । तहां अभव्य जो बाह्यकारण मिले ।
भी कर्मका उदयका भोगनेका स्वभाव नाहीं बदले है। तातें अज्ञानीकै भोक्तापणाका नियम 1 वणे है । आगे कहे हैं, जो ज्ञानी कर्मफलका अवेदक ही है ऐसा नियम कीजीये है। गाथा
गिब्वेदसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणादि। महुरं कंडवं बहुविहमवेदको तेण पण्णत्तो ॥११॥
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति । मधुरं कटुकं वहुविधमवेदको तेन प्रज्ञप्तः ॥११॥
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