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पणाका ज्ञानकरि बहुरि अपना अर परका एकपणाका वर्शन श्रद्धानकर वहरि अपनी अर परकी " एकपणाकी परिणतिकरि प्रकृतिके स्वभावविर्षे तिष्ठे है । तातें प्रकृतिके स्वभावकू अहंबुद्धिपणा-... करि आप अनुभवता संता कर्म के फलकूवेदे है-भोगवे है । बहुरि शानी है सो शुद्ध आत्माके ज्ञानके सद्भावतें अपना अर परका विभागका ज्ञानकरि बहुरि अपना अर परका विभागका ॥ दर्शन श्रद्धान करि बहुरि अपनी परकी विभागरूप परिणतिकरि प्रकृतिके स्वभावतें अपमृत भया
है- दूरिवर्ती भया है अर अपना शुद्ध आत्माका स्वभावकू एकहीकू अहंबुद्धिपणाकरि आप अनु卐 भवे है । सो ऐसे अनुभवन करता संता उदय आया जो कर्मका फल, सो ज्ञेयमात्रपणातें ताकू..
जाने ही है। बहुरि ताकू अहंपणाकरि अनुभवन करनेका असमर्थपणातें वेदे नाहीं है भोग , 卐 नाहीं है।
भावार्थ-अज्ञानीकै तौ शुद्ध आत्मा ज्ञान नहीं है, तातें जैसा कर्म उदय आवे तिसही आपा जानि भोगवै है। बहुरि ज्ञानीकै शुद्ध आत्मानुभव भया, तातै प्रकृतीका उदय आवै ताकू अपना स्वभाव जाने नाही, ताका ज्ञाता ही रहै-भोक्ता नाहीं होय है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शाद लविक्रीडितछन्दः अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्व दको ज्ञानीतु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातु विदकः ।
इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणेरझानिता त्यज्यतां शुद्ध कात्ममये महस्याचलितैरासेन्यता झानिता ॥५॥ अज्ञानी वेदक एवेति नियम्बते
अर्थ-अज्ञानी जन है सो तौ प्रकृतिस्वभावविर्षे रागी है लीन है, ताहीकू अपना स्वभाव ' 15 जाने है, तातें सदाकाल ताका वेदक है-भोक्ता है । बहुरि ज्ञानी है सो प्रकृतिस्वभावविष विरागो .." " है-विरक्त है, ताकू परका स्वभाव जाने है, तातें कदाचित् भी वेदक नाहीं है-भोक नाहीं है।
सो आचार्य उपदेश करे हैं-जो जे निपुण प्रवीण पुरुष हैं, ते ज्ञानीपणाका अर अज्ञानीपणाका .
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