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ऐसा नियम निरूपणaft विचारिकरि अज्ञानीपणाकूं तौ छोडौ । अर शुद्ध आत्मामय जो एक मह—तेज प्रताप, ताविषै निश्चल होयकरि ज्ञानीपणाकूं सेवन करो। आगे अज्ञानी है सो वेदक 5 ही है--भोक्ता ही है ऐसा नियम कहे हैं। गाथा -
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ण मुयदि पयडिमभव्वो सुदद्भुवि अज्झाइदूण सच्छाणि । गुडदुर्द्धपि पिता या पराणया निव्विसा होति ॥१०॥
न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्टुप्यधीत्य शास्त्राणि । गुडदुग्धमपि पिवंतो न पक्षमा निर्विषा भवंति ॥१०॥
जो पुण णिरावराहो चेदा गिस्संकिदो दु सो होदि ।
आराहणाय णिचं वठ्ठदि अहमिदि वियाणंतो ॥
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नीचे लिखी गाथाफी जमख्याति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई। फ
तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छपी है ।
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यः पुनर्निरपराधश्वेतयिता निश्शशंकितस्तु स भवति । आराधना नित्यं वर्तते अहमिति विजानन् ॥
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तात्पर्यवृत्ति:- जो गुण गिरवराहो वेदा णिस्संकिदो दु सो होदि - यस्तु चैत्रपिता ज्ञानी जीवः स निरपराधः सन् परमात्माराधनविषये निःशंको भवति । निश्शंको भूत्वा किं करोति ? आहारणायं णिव वट्ठदि अहमिदि विगाणंखोनिर्दोषपरमात्माराधनारूपया निश्चयाराधनया नित्यं सर्वकालं वर्तते । किं कुर्वन् ? अनंतज्ञानादिरूपोऽहमिति निर्विकसमाधौ स्थित्वा शुद्धात्मानं सम्यग्ज्ञानन् परमसमरसी भावेन चानुभवति इति ।
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अर्थ- जो ज्ञानी जीव है वह निरपराध होता हुआ परमात्मा के आराधनमें निःशंक होता है
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और मैं अनंतज्ञान स्वरूप हूँ" ऐसी निर्विकल्प समाधी में स्थित होकर परम समरसो भावका अनुभव करता है ।
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