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लग्या रहै ऐसे थांभ्या है, ऐसें जानना । अब कहे हैं, जो इहां निश्चयनयकरि प्रतिक्रमणादिककू ।... सौ विषकुंभ कह्या अर अप्रतिक्रमणादिककू अमृतकुंभ कहा, ताकू कोई उलटी समझि प्रतिक्रम५९णादिककू छोडि प्रमादी होय ताकू समझावनेकू कलशरूप काव्य कहे हैं।
. पसन्ततिलका यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिकमणमेव सुधा कुतः स्यात् ।
तरिक प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः किनोर्धमूर्ध्वमधिरोहति निप्रमादः ॥१०॥ अर्थ-अहो भाई, जहां प्रतिक्रमणहोकू विष कह्या, तहां काहेते अप्रतिक्रमण अमृत होय ? जतातें यह जन नीचे नीचे पडता संता प्रमादरूप क्यों होय है ? निष्प्रमादी भया संता ऊंचा ऊंचा ..
"क्यों नाहीं चढ़े है। 卐 भावार्थ-आचार्य कहे हैं, जो अज्ञानावस्थामैं जो अप्रतिक्रमणादिक था, ताकी तौ कथा ..
ही कहा ? इहां तौ निश्चयनयकू प्रधानकरि अर द्रव्यप्रतिक्रमणादिक शुभ प्रवृत्तिरूप थे, तिनिकी । ॐ पक्ष छुडावनेकू तिनि तौ विषकुंभ कहे हैं। जातें ए कर्म बंधके ही कारण हैं, बहुरि अप्रति
क्रमणप्रतिक्रमणते रहित तीसरी भूमि शुद्ध आत्मस्वरूप है, सो प्रतिकमणादित रहित है । ताते "
तहाँके अप्रतिक्रमणादिक अमृतकुभ कया है। तिस भूमीविर्षे चढावनेकू उपदेश किया है सो ७ प्रतिकमणादिककू विषकुंभ कहै मुणिकरि जो प्रमादो होय है ताकू कहे हैं यह जन नीचा " नीचा क्यों पडे है ? तीसरी भूमिमै ऊंचा ऊंचा क्यों नाहीं चढे है ? जहां प्रतिकमणकू विष- ॐ कुभ कह्या, तहां तौ तिसका निषेधरूप अप्रतिकमण ही अमृतकुभ होयगा। सो यह अप्रति
क्रमणादिक अज्ञानीकै होय, सो न जानना, तीसरी भूमिका शुद्ध आत्मामयी जाननी। आगे 卐 इस अर्थकू दृढ करते संते काव्य कहे हैं। ,
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कवायभरगौरवादलसती प्रमादो यतः। जतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्मुनिः परमशुद्धता ब्रजति जयते वाऽचिरात् ॥११॥
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पृथ्वीवृत्तम्