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अथ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारः ।
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दोहा - सर्वविशुद्ध ज्ञानमय सदा आत्माराम । परकूं करें न भोगवे जानें जपि तसु नाम ||१||
इहां मोक्षतत्त्वका स्वांग निकसनेके अनंतर सर्व विशुद्धज्ञान प्रवेश करे है। रंगभूमिविषै
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15 जीवाजीव, कर्ता कर्म, पुण्य पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए आठ स्वांग आये । तिनिका नृत्य भया । अपना अपना स्वरूप दिखाय निकलि गये । अब सर्व स्वांग दूरि भये एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करे है। तहां प्रथम ही मंगलरूप ज्ञानपुंज आत्माकी महिमाका काव्य कहे हैं। फ्र
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अर्थ -- ज्ञानका पुत्र आत्मा है, सो स्फुरायमान प्रगट होय है। कहा करि प्रगट होय है ?
5 समस्त ही कर्ता अर भोक्ता इत्यादिक भाव हैं तिनि सर्वहोकू भलै प्रकार प्रलय कहिये नाशकूं प्राप्त करी प्रगट होय है । बहुरि कैसा है ? प्रतिपद कहिये वारंबार नाशकूं प्राप्त करि प्रगट होय है । कर्मके क्षयोपशमके निमित्त अनेक अवस्था होय हैं, तिनिप्रति बंधमोक्षकी ज्यौं कल्पना फ 5 प्रवृत्ति तातें दूरीभूत है- दूरीक्त है । बहुरि शुद्ध है शुद्ध है। दोयवार कहनेतें रागादिक मल अर आवरण दोऊ रहित हैं बहुरि कैसा है ? अपना निजरस जो ज्ञानरस, ताका विसर कहिये 5 फैलना, ताकरि आपूर्ण कहिये भरया ऐसा पवित्र अर अचल है अर्चि कहिये दीप्ति-प्रकाश जाका । बहुरि कैसा है ? टंकोत्कीर्ण है प्रगट महिमा जाकी ।
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भावार्थ- शुद्धनका विषय ज्ञान स्वरूप आत्मा है, सो कर्ताभोक्तापणाका भावसू रहित ४६
है । बहुरि बंधमोक्षकी रचनाकरि रहित है, अर परद्रव्यतें अर सर्व परद्रव्यके भावनित रहित
फ्री है, तातें शुद्ध है। अर अपने निजरसका प्रवाहकरि पूर्ण दैदीप्यमान ज्योतिरूप टंकोत्कीर्ण जाकी
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पादाक्रान्ता छन्दः
नीत्वा सम्यक्प्रलयमखिलान्तु भोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपद्मयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्ण पुण्याचलार्थिष्टङ्कोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुखः ॥१॥
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प्रास