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शार्दूलविक्रीडितछन्दः सिद्धान्तोऽयमुदाचित्तचरितैर्मोक्षार्थिमिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैचास्म्यहम् । ॥ एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाः तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥६॥
अर्थ-उज्वल है उत्कट है चित्तका चरित्र जिनिका ऐसे मोक्षके अथि पुरुष हैं, ते यह सिद्धांत सेवन करो-जो मैं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ही सदा ही हौं, अर ए जे अनेक ७ प्रकारके भिन्नलक्षणरूप भाव हैं, ते मैं नाही हौं । जाते ते समग्र कहिये सारे ही मेरे परद्रव्य
हैं। भावार्थ सुगम है। आगे कहे हैं, जो परद्रव्यकू ग्रहण करे है, सो अपराधवान है, बंधमें 卐 पडे है । अर जो निजद्रव्यमें संतुष्ट है सो निरपराधी है, बंधे नाहीं है। ऐसी सूचनिकाका 15 अगिले कथनका श्लोक है।
अनुष्टुप्छन्दः परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्यते चापराधवान् । यध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ॥७॥ ___अर्थ-जो परद्रव्यकू ग्रहण करता संता है, सो सो अपमान है, सो बंधमें पडे है । बहुरि 1- अपने ही द्रव्यविर्षे संवररूप है संतुष्ट है परद्रव्यकू नाहीं ग्रहण करे है सो यतीश्वर अपराधरहित है, सो बंधे नाहीं । आगै इस कथनकू दृष्टांतपूर्वक गाथामें कहे हैं । गाथा
तेयादी अवराहे कुव्वदि जो सो ससंकिदो होदि। मा वज्झेऽहं केणवि चोरोत्ति जणम्मि विवरंतो॥१४॥ जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि। णवि तस्स वज्झि९ जे चिंता उपज्जदि कयावि ॥१५॥ एवं हि सावराहो वज्झामि अहं तु संकिदो चेदा। जो पुण मिरवराहो गिस्संकोहं ण वज्झामि ॥१६॥
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