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बंधको शंका नाहीं । अर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपका एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
मालिनीवृत्तम अनवरतमनन्तर्वध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं जातु नैव ।।
नियतया स्पं गजमराको राशिः निरपराधः साधुसुद्धात्मसेवी ॥८॥ अर्थ-जो आत्मा सापराध है, सो तौ निरंतर अनंतपुद्गलपरमाणुरूप कर्मनिकरि बंधे है। " 卐 बहुरि जो निरपराध है, सो बंधनकू कदाचित् नाहीं स्पर्श है । बहुरि यह सापराध आत्मा है, सो त
तो अपने आत्माकू नियमकरि अशुद्ध ही सेक्ता सापराध ही होय है । बहुरि जो निरपराध है, " सो भले प्रकार शुद्ध आरमाका सेवनेवाला होय है। आने व्यवहारनयका आलंवी तर्क करे ॥ है-जो इस शुद्ध आत्माका सेवनका प्रयास कहिये खेद ताकरि कहा है ? जाते प्रतिक्रमण आदि .. प्रायश्चित्त है. ताकरि ही आत्मा निरपराध होय है । जाते सापराधके तौ अप्रतिक्रमणादि हैं, सो अपराधके दूरि करनेवाले नाहीं हैं, तातें तिनिक विषकुभ कहे हैं। बहुरि निरपराधके प्रति- क्रमणादिक हैं ते तिस अपराधके दूरि करनेवाले हैं, तातें तिनि• अमृतकुंभ कहे हैं। सो ही । व्यवहारका कहनेवाला आचारसूत्रवि कहा है। उक्तं च गाथा---अप्पडिकमणमपडिसरणं, + अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिदागटहा सोहीय विसकुभो ॥१॥ पडिकमणं पडिसरणं परिहरणं धारणा णियत्तीय । जिंदा गाहा सोही अठविहो अमयकुभो दु॥२॥5 अर्थ-अप्रतिक्रमण, अप्रतिशरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा, अशुद्धि ऐसे ..
आठ प्रकार करिके लगै दोषका प्रायश्चित्त करना, सो तौ विषकुभ है--जहरका भरथा घडा है। + बहुरि प्रतिक्रमण, प्रतिशरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा शुद्धि ऐसे आठ प्रकारकरि ।
लगे दोषका प्रायश्चित्त करना, सो अमृतकुभ है। ऐसे व्यवहारनयके पक्षीने तर्क किया, ताका । 4 समाधान आचार्य निश्चयनयकू प्रधानकरि कहे हैं । गाथा
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