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राषकू नाही करे है ताकै सो शंका माही संभवे है, यह नियम है । या सर्वथा सर्वपरद्रव्यके " 9 भावका परिहार करि शुद्ध आत्मा ग्रहण करना । तैसें किये ही निरपराधपणा है।
भावार्थ-चोरी आदि अपराध करे, तो बंधनकी शंका होय । निरपराधके शंका काहे..... " होय ? तैसें ही आत्मा परद्रव्यका ग्रहणरूप अपराध करें, तो बंधकी शंका होय ही। आपकू
शुख अनुभवे परकू नाही ग्रहै तो बंधकी शंका काहेकू होय ? तातें परद्रव्यकू छोडि शुद्ध + आत्माका ग्रहण करना तब निरपराध होय है। आगे पूछे है, जो यह अपराध कहा है ! ताका .. उत्तर अपराधका स्वरूप कहे हैं । गाथा
संसिद्धिराधसिद्धी साघिदमाराविदं च एयहो। अवगदरायी जो खलु चेदा सो होदि अवराहो ॥१७॥ जो पुण णिरवराहो चेदा णिस्संकिओ दु सो होदि। आराणाए णिचं व?हिं अहं तु जाणतो ॥१८॥
संसिद्धिराधसिद्धं साधितमाराधितं चैकार्थ । अपगतराषो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः ॥१७॥ यः पुनर्निरपराधश्वेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति ।
आराधनया नित्यं वर्तते अहमिति जानन् ॥१८॥ ___ आत्मख्याति:-परद्रन्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः, अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराध
स्तेन सह यश्वेतयिता वर्तते स सापराधः स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्धथभावावंधशंकासंभवे सति स्वयम卐 वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराधः स समग्रपरदून्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसभाबाद बंधशंकाया असंभरे सति, पर
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