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卐 अर्थ-जगतविर्षे निश्चयकरि चेतना अद्वैत है तौऊ जो दर्शनज्ञानरूपकू छोडे तो सामान्य- 5
विशेषरूपके अभावतें सो चेतना अपना अस्तिपनाहीकू छोडे । बहुरि जब चेतना अपना अस्ति
"त्वकू छोडे, तब चैतनके जडता होय है । बहुरि व्याप्य जो आत्मा, सो व्यापक जो चेतना, ३तिसविना अंतर्फे प्राप्त होय । आत्माका नाश होय । तात नियमत चेतना है सो दर्शनज्ञान
.. स्वरूप ही होऊ। 卐 भावार्थ-वस्तुका स्वरूप सामान्य विशेषरूप है, सो चेतना भी वस्तु है, सो दर्शनज्ञान. ' - विशेषकू छोडै, तो वस्तुपणाका नाश होय, तब चेतनाका अभाव होते, के तौ चेतनके जडपणा ..
आवै, के चोतना आत्माकी सर्व अवस्थामै पा ? तातें व्यापक है अर आत्मा चेतना ही है। म तातें चेतनाके व्याप्य है सो व्यापकके अभावतें व्याप्य जो चेतन आल्मा ताका अभाव होय है। -
तातें चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ही माननी । इहां तात्पर्य ऐसा-जो सांख्यमती आदि कई 卐 सामान्यचेतनाहीकू मानि एकांत कहे हैं, तिनिका निषेध करनेकू वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेष__ रूप है, सो चेतनाकू सामान्यविशेषरूप अंगोकार करनी ऐसा जनाया है। आगे कहे हैं, जशेतनाका तो चिन्मय एक भाव है अर अन्य परभाव हैं, सो चिन्मयभाव तौ उपादेय है अर प्रपरभाव हेय है, सो यह सूचनिका अगिले कथनकी है, ताका श्लोक है।
इन्द्रवजाछन्दः । एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम् ।
__ ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भाषाः परे सर्वत एव हेयाः ॥५॥ ॐ अर्थ-चौतन्यका तो एक चिन्मय ही भाव है, अर अन्य भाव हैं, ते प्रगटपणे परके भाव हैं।
तातें एक चिन्मयभाव है सो ही ग्रहण करनेयोग्य है, बहुरि जे परभाव हैं, ते सर्व ही त्यागने"योग्य हैं । अव इस उपदेशकी गाथा कहे हैं। गाथा
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