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म संता चेतू हौं । न चेतता संताहीकरि चेतू हौं । न चेतता संताके अर्थि चेतू हौं। न चेतता के 4 संतातें चेतू हौं । न चेतता संतावि चेतू हौं । न चेतता संताकू चेतू हौं। तो कहा हौं? सर्व" विशुद्ध चैतन्यमात्र भाव हो। ____ भावार्थ-जिस प्रज्ञाकरि आत्माकू बंधतें भिन्न किया था, तिसहीकरि यह चैतन्यस्वरूप है
आत्मा में हों, अन्य अवशेष भाव हैं ते मोते यदा---पर हैं, ऐसे महाग फरना शो अभिन्न षट्म कारक लगावनेमें मोकू, मोहीकरि, मेरे ही अर्थि, मोते, मोविधे ग्रहण करू हौं। सो ग्रहण 1- करना कहा है ? चेतनकी चित्स्वरूप क्रिया ही है। ताकरि चेतू हौं-जानू हौं अनुभवू हौं
ऐसे लगाय, फेरि इनि कारकनिके भेदका भी निषेध किया । जो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र भाव हों, 4 सो एक अभेद हो-द्रव्यदृष्टिकरि कर्ता कर्म आदि षट्कारकका भी भेद मोवि नाहीं है। तातें
नाहीं चेतू हों इत्यादि लगावना । ऐसें बुद्धिकरि ग्रहण करना । अब इस अर्थका कलारूप ' काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः 卐 मित्या सर्वमपि स्वलक्षणबलाद् मेत्तु कियच्छक्यते चिन्मुद्रादितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवासम्पहम् ।
मिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भियन्तां न भिदाऽस्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ॥३॥ का अर्थ-ज्ञानी कहे है। जो भेदने न्यारे करने समर्थ इजिये, तिस सर्वकू निजलक्षणके । - बलते भेदिकरि अर मैं चैतन्यचिह्नकरि चिद्धित विभागरहित है महिमा जाकी ऐसा शुद्ध चैतन्य "ही हौं । बहुरि जो कर्ता कर्म करण सम्प्रदान अपादान अधिकरण ये षटकारक अर सत्त्व असत्त्व ॐ नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व आदिक धर्म अर ज्ञान दर्शन आदिक गुण ए भेदरूप हैं, तौ ॥
" भेदरूप होऊ । विशुद्ध समस्त विभावनितें रहित एक अर विभु कहिये सर्व गुणपर्यायनिमें व्यापक 卐 ऐसा चैतन्यभावविर्षे तौ किछू भेद है नाहीं। - भावार्थ-जो इस चैतन्यभावतें अन्य अपने स्वलक्षणकरि भेदे गये ते तो भेदरूप किये अर .
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