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जह णाम कोवि पुरिसो बंधणियमि चिरकालपडिवो। तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स ॥१॥ जइ णवि कुव्वदि छेदं ण मुंचदि तेण कम्मवघेण । कालेण वहुएणवि ण सो गारो पावदि विमोक्खं ॥२॥ इय कम्मबंधणाणं पयेसपयडिहिदीयअणुभागं । जाणंतोवि ा मुंचदि मुंचदि सब्वेज जदि सुद्धो ॥३॥
यथा नाम कश्चित्पुरुषो वंधनके चिरकालप्रतिबद्धः । ती मंदस्वभावं कालं च विजानाति तस्य ॥१॥ यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेन कर्मबंधन । कालेन बहुकेनापि न स नरः प्रामोति विमोक्षं ॥२॥ इति कर्मबंधानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागं ।
जानन्नपि न मुचति मुचति सर्वान् यदि विशुद्धः ॥३॥ 卐 आत्मख्याति:--आत्मबंधयोदिधाकरणं मोक्षः, बंधस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धनुरित्येके तदसत न कर्मबद्धस्य बंधस्वरूप .. ज्ञानमात्र मोक्षहेतुः अहेतुत्वात् निगडादिबद्धस्व बंधस्वरूपज्ञानमात्रवत् एतेन कर्मबंधप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसंतुष्टा , 卐 उत्थाप्यते--
अर्थ-अहो देखो ! जैसे कोऊ पुरुष बंधनविर्षे बहुत कालका बंध्या, तिस यंधनका तीन मंद ॥ "गाढा ढीला स्वभावकू जाने है, बहुरि तिसका कालकू जाने है, जो एता कालका बंध्या है, अर 卐 जो तिस बंधनकू आप काटें नाहीं है तौ तिस बंधनकै वशी भया ही रहे है, तिसकरि छूटै नाहीं ॥
है, बहुत भी कालकर सो पुरुष बंधते छूटना ऐसा मोक्ष नाहीं पाये है। तैसें ही जो पुरुष कर्मके
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