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5 ही न्यारे छद्मस्थके ज्ञानमें आवै नाहीं । एक स्कंध दीखे, याहोर्ते अनादि अज्ञान है । सो फ श्रीगुरुनिका उपदेश पायकरि इनिका लक्षण न्यारा न्यारा ही अनुभवकरि जानना । जो समय चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है अर रागादिक बंधका लक्षण है, ते भी ज्ञयज्ञायकभावकी 5 अतिनिकटताकरि एकसे होय रहे दीखे हैं, सो तीक्ष्णबुद्धिरूपी छैनी इनिकुं भेदि न्यारे न्यारे करनेका शस्त्र है, ताकू' इनिकी सूक्ष्मसंधीकूं हेरि सावधान निष्प्रमाद होय पटकणी, तिसकू फ पडते ही दोऊ न्यारे न्यारे दीखने लागे, तब आत्माकूं ज्ञानभावमें ही राखना अर बंधकूं अज्ञानभावमें रखना । ऐसें दोऊकूं भिन्न करना । अब इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहै हैं ।
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स्रग्धरा छन्दः
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानः क्ष्मेऽन्तः सन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।। आत्मानं मनमन्तः स्थिरविशदलसद्धाग्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानमाये नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥२॥ अर्थ - आत्मा अर बंधकूं भिन्न करनेकूं यह प्रज्ञा है सो तीक्ष्ण छैनी है। सो जे प्रवीण 卐 पुरुष हैं ते सावधान प्रमादरहित भये संते आत्मा अर कर्म इनि दोऊनिका सूक्ष्म जो अन्तः 5 कहिये मांहिला संधीका बंधन, ताविवें याकूं कोई प्रकार यत्नकरि ऐसें पटके है सो यह बुद्धिरूपी छैr ariust हुई शीघ्र ही समस्तपणे भिन्न भिन्न करती पडे है । सो आत्माकुं तो अंतरंग- 4 5 विषै स्थिर अर विशदलसत् कहिये स्पष्ट प्रकाशरूप दैदीप्यमान है धाम कहिये तेज जाका ऐसा 4 जो चैतन्यका पूर प्रवाह, ताविषै मन करती संती पर्डे है । बहुरि बंधकूं अज्ञानभावविषै निश्चल 5 नियमतें करती संतो पडे है ।
५ भावार्थ - इहां आत्मा अर बंधका भिन्न भिन्न करना नामा कार्य है । ताका कर्ता आत्मा है। अर करणवाकर्ता काहेकरि कार्य करें ? तातें करण चाहिये । अर निश्चयनयकरि कर्ता- " तैं भिन्न करण होय नाहीं । तातें आत्मातें अभिन्न यह बुद्धि, इस कार्यविषै करण है। सो आत्माकै अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म हैं । तिनिका कार्य भावबंध तौ रामादिक हैं । अर
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