________________
555 5 5
卐 नोकर्म शरीरादिक हैं। सो बुद्धिकरि आत्माकू शरीरतें तथा ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मते तया ॥ समया, रागादिक भाषकर्मत भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवकरि ज्ञानहीमें लीन राखना, यह ही
- भिन्न करना याहीते सर्व कर्मका नाश होय, सिद्धपदकं प्राप्त होय है, ऐसें जानना । आगे फेरि, ४४२ पूछे है, जो आत्मा अर बंधकू द्विधा करि अर कहा करना ? ऐसे पूछे उत्तर कहे हैं । गाथा
जीवो बंधोय तहा छिजति सलक्खणेहिं णियएहिं । बंधो छेदेदवो सुद्धो अप्पाय घेत्तव्यो ॥८॥
जीवो बंधश्च तथा छियेते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्यां ।
बंधश्छेत्तव्यः शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः ॥८॥ आत्मख्यातिः-आत्मबंधी हि तावन्नियतस्वलक्षण विज्ञानेन सर्वथैव छत्तव्यौ ततो रागादिलक्षणः समस्त एव । प. बंधो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणशुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः। एतदेव किलात्मबंधयोदिघाकरणस्य प्रयोजनं यद्वधत्यागेन 1 शुद्धात्मोपादानं ।
अर्थ-जीव अर बंध ए दोऊ अपने अपने निश्चित निजलक्षणनिकरि तैसें भिन्न कीजिये, जैसे बंध तौ छेदि भिन्न करना अर शुद्ध आरमाकू ग्रहण करना ।
टीका-आत्मा अर अंध दोऊ प्रथम तो अपना अपना निश्चित निजलक्षण है ताका विज्ञानकरि सर्वप्रकार ही भिन्न करने, पीछे रागादिक हैं लक्षण जाका ऐसा समस्त ही बंधकू.. तौ छोडना, अर उपयोग है लक्षण जाका ऐसा शुद्ध आत्मा एकला ही ग्रहण करना । यह हो । निश्चयकरि आत्मा अर बंधका द्विधाकरणका प्रयोजन है; जो बंधका त्याग करि शुद्ध आत्माका + ग्रहण करना।
भावार्थ-शिष्य पूछा था, जो आत्मा अर बंधकू द्विधा करि कहा करना ? ताका यह उत्तर) दिया, जो बंधका तो त्याग करना अर शुद्धात्माका ग्रहण करना। आगें पूछे है-आत्मा अर ...
15 5 5 5 555