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1. पर्यायकू व्याप्यकरि प्रवर्तते है बहुरि निवृत्तता संता जिस जिस पर्यायकू ग्रहणकरि निवृत्त होय .
है, सो सो समस्त सहवर्ती अर क्रमवर्ती पर्यायनिका समूह, सो आत्मा है ऐसा लखने योग्य है, यह लक्षण समस्त गुणपर्यायनिमें व्यापक है । सो सर्व ही गुणपर्यायनिका समुदाय आत्मा है -
ऐसा इस लक्षणतें जानना । जातें आत्मा तिस हो एक लक्षणते लक्ष्य है। बहुरि चैतन्यके के समस्त सहवर्ती अर क्रमवर्ती जे अनंतपर्याय, तिनितें अविनाभावीपणा है। तातें चिन्मात्र ही आत्मा है, ऐसा निश्चय करना, ऐसा दूसरा व्याख्यान है। .
बहुरि बंधका स्वलक्षण आत्मद्रव्यते असाधारण रागादिक हैं । जातें ए रागादिक हैं ते + आत्मद्रव्यते साधारणपणाकू धारते नाहीं प्रतिभासे हैं । इनिके सदा ही चैतन्यचमत्कारतें भिन्न- .. 'पणाकरि प्रतिभासमानरणा है। बहुरि नेता इस समस्त अपने पर्यायनिमें व्यापनेस्वरूप चैतन्य- श्री
प्रतिभासे है, तेते ही रागादिक नाहीं प्रतिभाते हैं, रागादिकविना भी चैतन्यका आत्मलाभ - __ कहिये स्वरूप पावना संभव है । बहुरि जो रागादिकका चैतन्यकरि सहित ही उपजना दीखे । 卐 है, सो यह चेत्यचेतकभाव कहिये ज्ञेयज्ञायकभाव. ताके अत्यंत प्रत्यासत्ति कहिये अतिनिकटता, पE
ताते दीखे है, एकद्रव्यपणातें नाहीं है । तहां चेत्यमान कहिये ज्ञेयरूपज्ञानमें आवते जे रागादिक,
ते आत्माके चेतकता कहिये ज्ञायकपणाहीकू विस्तारे हैं। बहुरि रागादिकपणाकू नाहीं विस्तारे 5 जज हैं। जैसे दीपकके घटादिक प्रकाशने योग्य होते प्रदीपकपणाहीकू विस्तारे हैं, बहुरि घटादिक" पणाकू नाहीं विस्तारे हैं, तैसें जानना । बहुरि ऐसे होते भी आत्मा अर बंध दोऊके अत्यंत 4 प्रत्यासत्ति-निकटताकरि भेदकी संभावनाका अभाव है-भेद दीखे नाहीं है, तातें इस " अज्ञानीके अनादिकालते एकपणाका व्यामोह है-म है, सो ऐसा व्यामोह प्रज्ञाहीकरि छेया 卐 ही जाय है।
____भावार्थ-आत्मा अर बंध दोऊकू लक्षणभेदकरि पहिचानि बुद्धिरूपी छैनीकरि छेदि न्यारे फ़ पारे करने । जाते आत्मा तौ अमूर्तिक, अर बंध सूक्ष्मपुद्गलपरमाणुनिका स्कंध, यातें
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