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पकतामित्र
: द्रन्यासाधारणता विभ्राणाः प्रतिभासते नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । नच याचदेव समस्त स्वपर्यायन्यापि चैतन्यं प्रतिभाति ? रागादीनंतरेणापि चैतन्यस्यारमलामसंभावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहकी- 1स्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव नेकद्रव्यत्वात, चैत्यमानस्तु रागादिरात्मनः प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदी-" पकतामित्र चेतकतामेव प्रथयेन्न पुनारागादीनां, एवमपि तयोरत्यंतप्रत्यासत्या भेदसंभावनामावनादिरस्त्येकत्वन्यामोहः । स तु प्रायैव छियत एव । ____ आत्मबंधौ द्विधाकृत्वा किं कर्तव्यं ? इति चेत् ।
अर्थ-जीव अर बंध दोऊ अपने अपने निश्चतस्वलक्षणनिकरि बुद्धिरूपी छैनीकरि जैसे - छेदे तैसें छेदिये हुये नानापणाकूपात होय जाय न्यारे न्यारे होय जांय ।।
टीका-आत्मा अर बंधका द्विधाकरण कहिये न्यारा न्यारा करना नामा जो कार्य, ताविर्षे ॥ करनेवाला जो कर्ता आत्मा, ताके करणका विचार कीजिये तब निश्चयनयथकी आपते न्यारा ... करण नामा कारकका तो असंभव है । तातें भगवती कहिये ज्ञानस्वरूप जो प्रज्ञा बुद्धि, सो ही की छेदनस्वरूप करण है, तिस प्रज्ञाहीकरि ते दोऊ आत्मा अरबंध छेदे हुये नानापणाकू अवश्य ।। प्राप्त होय हैं—अवश्य न्यारे न्यारे होय जाय हैं । ताते प्रज्ञाहीकरि आत्मा अर बंधका न्यारा." न्यारा करना है । इहां प्रश्न है--जो आत्मा अर बंध ए दोऊ तो चेतकवेत्यभावकरि अत्यंत प्रत्यासत्ति कहिये निकटताकरि एकले होय रहे है । आत्मा तो चेतक है अर बंध चेत्य है । सो दोऊ एकरूप भये अनुभवमें आवे है । सो भेदविज्ञानके अभावतें एक चेतक ही जो व्यवहारमै प्रवर्तते ॥ देखिये हैं, ते प्रज्ञाकरि कैसे छेदनेक समर्थ हूजिये? ताका समाधान आचार्य करें हैं-जो हम ऐसे ... जाने हैं, आत्मा अर बंधका निश्चितस्वलक्षणकी सूक्ष्म जो अन्तःसन्धि कहिये अन्तरंगको मिली, हुई सन्धि, ताविर्षे इस प्रज्ञा छैनीकू सावधान होयकरि पटकनेते दोऊ न्यारे न्यारे होय जाय। है। तहाँ आत्माका तौ निजलक्षण निश्चयकरि समस्त अन्य द्रव्यनितें असाधारणपणातें जो अन्यमें । न पाइये है ऐसा चैतन्य स्वलक्षण है, सो यह चैतन्य स्वलक्षण है, सो प्रवर्तता संता जिस जिस
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