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अथ मोक्षाधिकारः। दोहा-कर्मपंध सब काटिक पहुंचे मोक्ष सुधान । नम् सिद्ध परमात्मा करू ध्यान अमलान ॥१॥ आत्मस्वाति:-अब प्रविशति मोक्षः ।
अब टीकाकारके वचन हैं, जो इहां मोक्षतत्त्व प्रवेश करे है। प्रबंध-जैसे नृत्यके अखाडेमें + स्वांग प्रवेश करे है। तहां ज्ञान सर्व स्वांगका जाननेवाला है, तातें सम्यग्ज्ञानकी महिमारूप मंगल है। अधिकारका आदिवि काव्य कहे हैं।
शिखरिणीछन्दः हिनामा मात्रकलदलनाद बन्धपुरुषो नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भकनियतम् ।
इदानीमुन्मज्जन् सहजपरमानन्दसरसं परं पूर्ण शानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥१॥ " अर्थ-अब बंधपदार्थक अनंतर पूर्णज्ञान है सो प्रज्ञारूप करोतकरि दलन कहिये विदारणते ॥
बंध अर पुरुषकू द्विधा कहिये न्यारे न्यारे दोय करि अर पुरुषकू साक्षात् मोक्षफू प्राप्त करता संता " जयवंत प्रवर्ते है । कैसा है पुरुष ? उपलंभ कहिये अपना स्वरूपका साक्षात् अनुभवन, ताहीकरि का + निश्चित है। बहुरि ज्ञान कैसा है ? उदय होता जो अपना स्वाभाविक परम आनंद, ताकरि सरस .- है रस भरथा है, बहुरि पर कहिये उत्कृष्ट है, बहुरि कीये हैं समस्त करने योग्य कार्य जाने-अब ॐ कछु करना न रहा है।
भावार्थ-ज्ञान है सो बंधपुरुषकू जुदे करि पुरुषकू मोक्ष प्राप्त करता संता अपना संपूर्णरूप " प्रगटकरि जयवंत प्रवर्ते है, याका सर्वोत्कृष्टपणा कहना यह ही मंगलवचन है। आगे कहे हैं,
जो मोक्षकी प्राप्ति कैसे होय है। तहां प्रथम तौ जो बंधका छेद न करें हैं अर बंधका स्वरूप ही जाणि संतुष्ट हैं, ते मोक्ष न पावे हैं । माथा --..
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