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आपकू अधर्मरूप करे है । बहुरि जाण्या हुवा अन्य जीवका अव्यवसानकरि आपकू अन्यजीवरूपक म करे है । बहुरि जाण्या हुवा पुद्गलका अध्यक्सानकरि आपकू पुद्गल करे है। बहुरि जाण्या -
हुवा लोकाकाशका अध्यवसानकरि आपकू लोकाकाश करे है। बहुरि जाण्या हुवा अलोका05 काशका अध्यवसानकरि आपकू अलोकाकाश करे है। ऐसे सर्वस्वरूप आपकू अध्यवसानकार
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भावार्थ-यहू अध्यवसान अज्ञानरूप है, तातें अपना परमार्थरूप नाहीं जानना। आत्मा के आपकू अनेक अवस्थारूप करे है, तिनिविर्षे आपा मानि प्रवर्ते है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं तथा अगिले कथनकी सूचनिका है।
इन्द्रवजाछन्दः विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रमावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् ।
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां पतयस्त एव ॥१०॥ ___ अर्थ-यह आत्मा समस्त द्रव्यनितें भिन्न है, तोऊ जिस अध्यवसायके प्रभावतें आपकू समस्त-"
स्वरूप करे है, सो यह अध्यवसाय कैसा है ? मोह है एक कंद जाका । सो यह अध्यवसाय 1. जिनिके नाहीं है, ते यति हैं मुनि हैं। आगे कहे हैं यह अध्यवसाय जिनिकै नाहीं ते मुनि कर्मत नाहीं लिपे हैं । गाथा
एदाणि णत्थि जोर्स अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण य कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥३४॥
एतानि न संति येषामध्यवसानान्येवमादीनि ।
तेऽशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यंति ॥३४॥ बास्मल्याविः-एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि समस्तान्यपि शुभाशुभकर्मबन्धनिमित्तानि स्वयमकानादिस्मत्वात् । तया हि यदिदं हिनमीत्यायध्यवसानं तत्त्वज्ञानमयत्वेन आत्मनः सदहेतुकज्ञप्त्यैकक्रियस्य राष- -
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